समय जो चाहे.स़ो करे! कहां तो यह उपन्यास मन् १८८६ ई. मे लिखा गया था, और कहां आज बारह-तेरह वर्ष के पीछे पुस्तकाकार में छपने की इसकी पारी आई !अब सिवाय इसके और क्या कहा जा सकता है कि,-'मेरे मन कछु और है, करता के कछु और !!!"
सन् १८८७ ई. की बात है,-'हरिहरक्षेत्र' में कार्तिक की पूर्णिमा के दिन सङ्गम पर स्नान करते समय हमारे एकान्त-मित्र पण्डितवर जगन्नाथ प्रसाद त्रिपाठीजी ने अपने एक बन्धु से यो पूछा कि,-"क्यों भाई ! उस घटना को तो आधी शताब्दी बीत गई होगी?' इस पर उन बन्धु-महाशय ने यों कहा कि,-' हां, उस (आधी शताब्दी ) में अब केवल दो ही तीन वर्ष और बाकी है।'
इन दोनों बन्धुओं की रहस्यमयी बातें हमने भी सुनी, किन्तु इस विचित्र पहेली को न समझकर पण्डितजी से पूछा कि,-'क्यो भाई! यह कैसी घटना है ? ' इस पर उन्होंने हंसकर यों कहा कि.-'वाह, आपने खुब टोका ! एक बड़ी ही मजेदार और सच्ची कहानी है; परन्तु यदि उसे आप उपन्यासकार में लिखने की प्रतिज्ञा करें, तो वह आपको बतलाई जाय!"
पण्डितजी की ऐसी अनोखी बात सुनकर हमारी बेचैनी उस कहानी के सुनने के लिये ऐसा बढ़ी कि हमने चटपट यो प्रतिक्षा को कि,-' बहुत अच्छा, हम आपसे सुनी हुई कहानी पर एक उपन्यास अवश्य लिखेंगे !' यह सुनकर पण्डिनजी ने कहा कि,'बहुत अच्छी बात है, डेरे पर चलकर हम वह अजीब कहानी आपको ज़रूर सुनावेंगे!
निदान, फिर हमलोगों ने स्नान कर ओर श्रीहरिहरनाथजी का दर्शन तथा पूजन कर और डेरे पर आकर ब्राह्मण-भोजन कराने के बाद खुद भोजन किया। फिर और कई आवश्यक कामों से छुट्टी पाने पर हमने पण्डितजी से यो कहा कि-' बस, अब कृपाकर आप पर उस कहानी को कह डालिए ? ' यह सुनकर उन्होंने अपने उन्हीं बन्धु-महाशय से यों पूछा कि,- क्यो भाई ! उस घटना पर यदि कोई उपन्यास लिखा जाय तो आपको कुछ उज तो न हागा ? इस पर उन बन्धु महाशय न इसकर कहा इसमें