मैं हज तो कुछ भी नहीं समझता लेकिन इस कहानी मे जितने लोगों के नाम आए हैं, यदि बदल दिए जायगे तो अच्छा हागा।" इस पर पण्डितजी ने उनसे यों कहा कि,--'मगर मुख्य पात्रों का नाम तो ज्यों का त्योही रहना चाहिए? यह सुन उन बन्धु-महाशय ने कहा कि,-' खैर, अच्छी बात है। इसमें नुकसान ही क्या है! लेकिन यदि केवल इस कहानी की मुख्य पात्री "कुसुम" तथा मुख्य पात्र "बसन्त"-इन दोनों के नाम तो ज्यों के त्यों रहै, पर और और पात्रो के नाम अगर बदल दिए जांय तो और भी अच्छा हो।' इस पर पण्डितजी ने कहा कि.-'भला, यह कैसे होसकता है ? जरा सोचिए तो सही कि चुन्नी और भैरोसिंह के नाम कैसे बदले जा सकते हैं ? और "गुलाब" का ही नाम कैसे छिपाया जा सकता है ? इसके अलावे प्रात:स्मरणीय महानुभाव श्रीमान् बाबू कुचरसिंह का ही नाम कैसे बदला जा सकता है ? हां,इतना हम अवश्य ही उचित समझते हैं कि कुसुम और गुलाब के पिता तथा भ्राता का नाम कल्पित रख दिया जाय और उनकी राजधानी का नाम न प्रकट किया जाय, इस पर उन बन्धु-महाशय ने प्रसन्नता के साथ यों कहा कि,-'खैर, जैसा आप और गोस्वामीजी मुनासिब समझ, वैसा करें, इसमे मुझे कोई आपत्ति नहीं है।'यह सुनकर पण्डितजी ने यह अनोखी कहानी बड़ी ही रसीली भाषा में कह सुनाई, जिसे सुनकर हमारी तवीयत फडक उठी !फिर हमने उस कहानी की सच्ची घटना पर यह उपन्यास लिखकर सन १८८६ ई० में, अर्थात उसी सन् में-एक महीने के अन्दर ही पूरा कर डाला और इसे सुनकर पण्डितजी और उनके बन्धु-महाशय बाग बाग हो गए। इस उपन्यास की कहानी बिलकुल सञ्ची है. और कुसुम, बसन्त, गुलाब, और भैरोसिह को छोड़कर बाकी लोगों के नाम कल्पित है। यह उपन्यास पूरा होते ही उसी सन में 'सारसुधा-निधि' में छपने लगा था, पर एक ही दो संख्या में छपकर रह गया था। फिर उसके बाद सन् १८८६ ई० में यह उपन्यास "विज्ञवृन्दावन" नामक मासिकपत्र में छपने लगा था, परन्तु कई कारणो से उसमे भी यह उपन्यास पूरा पूरा नहीं छप सका था: अस्तु! बड़े ही आनन्द की बात है कि ईश्वरानुग्रह से आज यह उपन्यास छपकर उपन्यास के प्रेमी प्रिय-पाठको के सम्मुख उपस्थित किया जाता है।
विनयापनत
गाशकार