परिच्छेद । कुसुमकुमारी प्यारे तुम जामें सुखी, यहै हमैं सुख-मूल । पै निवाह या नेह को, तजहु न चित तें भूल ॥ १०७ ॥ प्यारे अब अपनाइ कै, सुखी करहु सुख-मान । मन की कसक मिटाइ हँसि, राखि लेहु मम प्रान ॥ १०८॥ प्यारे तुमरे नैन में, सोहै सदा सनेह । अब हम-तुम दोऊ भए, एक-पान द्वैदेह ॥ १०६॥ प्यारे तेरे गुन-गुही, प्रेम-पुष्प की माल । याको निज उर धारि कै, मोकों करहु निहाल ॥१०॥ प्यारे तुम में नित रहै, गंभीराशय प्रेम । प्रेमी-जन नित नेह ते, गावहिं एहि करि नेम ॥ ११ ॥ (और भी) प्रेम करि काहू सुख न लयो। सव तजि जाके हाथ विकानी, सोउ न बाँह गह्यो। हाहा खात जात निलिवासर. नैनन नीर बह्यो। तवौं अमानो यह मन पापी, मानत नाहिं कह्यो । विरह-विथा तन्न ख्यापि रही अति, जात सरीर दह्यो । रसिककिसोरि विना नेही के, दुख नहि जात सह्यो।॥१॥ प्रीत की रीत निराली देखी । ज्यो-ज्यों बिछुरन होत मीत सो, त्यों-त्यों बढ़त बिसेखी। जानि न परत भेद कछु याकों, याकी गति अनपेखी । रसिककिसोरी यह सोइ जानत, जाके हिय अवरेखी ॥२॥ प्रीत को पंथ किधौं तरवार । सीधी चाल चले बिन या, काटत पैनी धार ।। किएँ न वनत बाँकपन यामें, देखहु नैन पसार। रसिककिलोरी सोइ सुख पावत, जो जानत करि प्यार ॥३॥ प्रेम को मारग अतिहि भयावन । भूलभुलैयाँ में फैसि बरबस, अपने मनहिं फंसावन ।। अरुभि गयो जो कोऊ यामें, कठिन होत सुरभावन । बार-बार कर मीजि-मीजि वह, करत महा पछितावन। पहिले ही चेत्यो नहिं जाने, पाछे का समुहाक्न । रसिककिसोर लालच में फैसि, नाहक जनम गवाँवन ॥४॥ प्रीत की गैल न कोऊ जैये। क्यों नाहक या मारग पग धरि, अपने मनहिं फंसैये।। याके उगर-वगर दुख बगरयो, सुख कोखोज न पैये। रसिककिसोरी क्यों इतनो हठ. करिया पछितैये ॥५॥
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