पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/७३

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स्वगायकुसुम पोसवा ___कुसुम,-(मुस्कुराकर और उसकी पोट में एक थप्पड़ जड़ कर ) "दुष्टशिरोमणि! तुम्हारी दुष्टता अब मैं समझी! दर-हक़ीकत तुम पूरे कसाई हौ! सचमुच, तुम बड़े खोटे हौ! अरे, जो बात सीधी तरह से होसकती थी, उसके लिये इतने जंजाल की क्या ज़रूरत थी!" बसन्त,--(प्यार से उसे सीने से लगाकर)" इसीलिये कि तुम तो अब तक सन्नाटा ही बँचे हुई थीं ! अच्छा, जो कुछ हुआ, सो तो हुआ, पर अब तो बतलाओ कि आगे तुम्हारा इरादा क्या है? बस जो कुछ तुम्हारा बिचार हो, उसे अभी तय कर डालो!" कुसुम,-"प्रानप्यारे, सुनो-मेरी यह प्रतिज्ञा थी कि पहले नुम सवाल करो; सो नारायण की दया से मेरी मनोकामना आज पूरी हुई ! खैर, अव सुनो, तुम इतने घबराते क्यों हो ? अरे, मैं तो अब तुम्हारी बिना मोल की दासी बन ही चुकी हूं, तो फिर मुझ से पूछने की क्या ज़रूरत है ? इसलिए अब जो दिल में आवे सो करो क्यों कि मैं तो तुम्हें अपना तन, मन और धन अर्पन कर ही चुकी हूं! सो, प्यारे मैं जब अपने की तुम्हारे अख्तियार से बाहर समझती तब तो खुद कोई बात कहती? अजी, मैं तो यह समझे हुए थी कि,- 'जब कि मैं प्यारे की लौंडी हूँ, तो, जो प्यार के जी में आवे, सो वह करे।' किन्तु हे दुष्ट-शिरोमणि तुम्हें तो विना-धात एक झूठ-मूठ का टंटा खड़ा करना था ! खैर, प्यारे ! प्यार की लड़ाई में भी मिठास होती है ! खैर, तो बस, हुआ न ! या अभी लड़ाई को कुछ और हवस जी में बाकी है !!!" बसन्त,-"अच्छा, तो प्यारी अब तुम यह बताओ कि हमारा- तुम्हारा सरोकार क्योंकर कायम हो?" कुसुम,-" जिस तरह तुम्हारा दिल चाहे।" बसन्त,-" नहीं, जैसा तुम पसन्द करो!" कुसुम,-"मैं तो तुम्हारे हुकुम के तावे हूं।" बसन्त, "लेकिन,यह मामला मैं तुम्हारी मर्जी परछोड़ताहूं।" कुसुम,-" तो क्या मेरी बात मानोगे?" बसन्त,-"ज़रूर मानंगा।" कुसुम.-" तो देखो.-फिर नाही-नुकर मत करना! वसन्त, 'नहीं, प्यारी कमी नहीं .