पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/७४

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कुसुमकुमारी। इक्कीसवां परिच्छेद. विवाह-व्यवस्था। 'शयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा, यदायमस्याभिलाधि से मनः। हि सन्देहपदेषु वस्तुषु, प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः॥" (अभिज्ञान-शाकुन्तले) यह सुन कर कुसुमकुमारी ने बसन्त की ओर मुस्कुराकर देखा और उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा,- 'तो, सुनो, प्यारे ! मैं भी क्षत्रिय की लड़की हूँ, और तुम भी क्षत्री-जाति के हो, इसलिये-- -- -- -" इतना कहते कहते कुसुमाकगई, पर उसकी उस 'तलब समझ कर बसन्त ने हँसकर कहा,-"तो फिर क्या हो कि मै तुम्हारे साथ शादी करलं!" न कुसुम ने बड़े प्रेम से बसन्त को गले से लगा और उसके बड़े.चाय से चूमकर कहा,-"वाह, प्यारे ! तुम धन्य हो मेरी दिली आरज समझ ली! बेशक मैं भी यही चाहती ो मेरीइच्छा भी है कि जब मैं एक ही शरूस के साथ अपनी काटा चाहती हूं तो फिर तुम्हारे साथ तुम्हारी रंडी बनकर ल्क जोरू बनकर रहूँ ! " न बसन्त ने बड़े प्यार से उसे अपने हदय से लगा लिया -"प्यारी कुसुम ! जो सच पूछो तो मैंने भी दिल ही दिल

  • इरादा कर लिया था कि अगर तुम मानोगी तो मैं तुम्हारे

करके जोरू-खसम की भांति अपने दिन बड़े ही आरामा. थ बिताऊंगा; क्योकि मैं यह बात पहिले ही मे समझे हुए . तुम्हारे ऐसे अच्छे ढग है और तुम इननी पाक-माफ़ हो तुम मेरी ब्याहता जारू बनने के काबिल हो; क्योंकि अगर त्रियकुमार के ब्याहने लायक न होती तो मेरा पवित्र मन्न परो तरफन खिचमा। त सुनकर बहुत ही खुश हुई और मुस्कुराकर