पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/९५

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स्वायकुसुम । (सत्ताईसवा तेजो से शहर की ओर भागे कि उन दोनो ने अपने गधे, कपडे और पुलाव की ओर जरा फिरकर भी न देखा ! यह तमाशा देखकर भैरोसिंह, कुसुमकुमारी और बसन्तकुमार हंसते-हंसते लोट गए ! फिर थोड़ी देर टढी हवा खा और निर्जन नदीतट की बहार देखकर कुसुम वहाँसे हटकर बैठ गई। तब भैरोसिंह ने नहीं पर छत में लटकती हुई दूसरी जंजीर को ज़ोर से झटका देकर खंचा, जिसके खेंचते ही खट्ट से पटिया अपने ठिकाने जा लगी। फिर वहाँसे लौटकर बसन्तकुमार ने भैरोसिंह की ओर देख- कर कहा,-"क्यों भाई ! यदि कोई बाहर से इस कत्र के अन्दर आया चाहे तो क्यों कर आ सकता है ? " भैरोसिह,--"उस कत्र में एक पत्थर का तकिया खड़ा हुआ है, जिसकी जड़ में बराबर एक सीध में ग्यारह सूराख बने हुए हैं, उन्ही में से एक ओर के तीसरे सुराख मे ताली लगाने से पटिया खुल जायगी। फिर भीतर आने पर जिस तरह से जंजीर खेंच कर मैंने पटिया को बंद किया है, वैसे ही वह बंद की जायगी। निदान; फिर तीनो आदमी उस सुरग से वापस आकर उसी तंग कोठरी में पहुंचे। तब भैरोसिंह ने उधर का दर्वाजा बंद कर के दक्खिन और बाला दर्वाजा खोला और तीनो उसके अंदर गए। उसके भीतर जाते ही कुसुमकुमारी ने कहा,-'हां, सुनी तो भैरोसिंह! जरा ठहरो इधर से तो परसो रात को तुम्हारे बतलाने से हम दोनो अपने महल में पहुंच ही गए थे और फिर उन कम्बख्नो को यहां फांसकर तुम भी वहां इसी राह से आगए थे ! बस, यह सुरंग तो मैं देख ही चुकी हूँ, इसलिये अब लौटकर हम्माम की राह से ऊपर बाग में चलना चाहिये, क्यों कि बहुत देर होने, या इस सुरङ्ग की राह से महल तक चले जाने में वाग के दाई-चाकरों के जी में बड़ा भारी सन्देह होगा और अजब नहीं कि उन लोगों की कानाफंसी से इस सुरङ्ग का भेद खुल पड़े !" इस बात को भैरोसिंह और बसन्तकुमार ने पसन्द किया और फिर उस दर्याजे को बंद कर और सीढ़ी का दर्वाजा खोलकर सन्ध कोई ऊपर हम्माम में आए, और वहां आकर भैरोसिंह ने हौज की टोंटी में तालाभरकर सुरंग का नामोनिशान गायब कर दिया! फिर सब कोई बाहर माए और वह मेद दाई-चाकरों पर छिपाही रहा