(माइक्रोस्कोप) और स्टॉप वॉच जैसे नए उपकरणों को अपना लिया था। नए अस्पताल बनाए जा रहे थे। फार्मेसियां बड़ी और अधिक केंद्रित हो गई थीं।
इन सबों के बीच, नए विश्वविद्यालयों और कॉलेजों का निर्माण चिकित्सा के शिक्षण के लिए किया जा रहा था। जब नए ‘अस्ट्रांग आयुर्वेद महाविद्यालय का निर्माण हुआ, तो उसकी नींव रखने के लिए महात्मा गांधी को आमंत्रित किया गया था।
महात्मा गांधी ने अपने किसी निजी कारणों से इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। वहां पर उनका स्वागत विशेष अतिथि के रूप में तुरही-नाद के साथ किया गया और उनसे दो शब्द कहने के लिए कहा गया। उन्होंने उसके बाद इस पूरे उपक्रम की जमकर आलोचना की। आप 6 मई, 1925 के उनके भाषण को संकलित कार्यों के खंड 27 के पेज 42 पर पढ़ सकते हैं। महात्मा गांधी ने इस बात पर जोर दिया कि वे इन सब के बारे में क्या महसूस करते हैं कि कैसे बड़े बड़े अस्पताल और चमकीले डिस्पेन्सरी, चीजों को बेहतर बनाने के बजाय खराब कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आयुर्वेदिक चिकित्सकों में विवेक की कमी है और उनमें नम्रता की भी कमी है। यह तो केवल उनकी शुरूआत थी। वे बाद में, इस प्रश्न के जड़ तक जाकर उसकी कड़ी आलोचना की, और ऐसा सिर्फ गांधी जी ही कर सकते थे।
महात्मा गांधी के जाने के बाद वहां पर उथल-पुथल मच गई। निमंत्रण समिति ने उन्हें पत्र लिखा और उनसे अपने शब्द वापस लेने की प्रार्थना की। उन्होंने इसे नकार दिया। मैंने उनका यह भाषण सैम पित्रोदा को भेजा और उन्होंने यह कहते हुए प्रतिक्रिया दी कि वे बहुत से बिंदुओं पर गांधी जी से सहमत हैं। सैम ने स्पष्ट किया कि गांधी के कहने का तात्पर्य यह था कि समाज को रोगों के रोकथाम पर ध्यान देना चाहिए न कि चिकत्सकों, दवाईयों और अस्पतालों के व्यवसाय उद्यम के रूप में विकास करने पर। गांधी जी ने यह भी कहा कि आपका यह सोचना कि आपके पास सभी उत्तर हैं एकदम गलत है। और वे यह महसूस करते हैं कि अधिकांश चिकित्सक यह सोचते हैं कि सभी उत्तर आयुर्वेद के पास है, जो गलत है। और उन चिकित्सकों में सामान्य लोगों के स्थानीय ज्ञान के प्रति, नम्रता और विश्वास की भी कमी दिखती है।
इन दो उपाख्यानों ने मुझे यह बताया कि क्यों सूचना के लोकतांत्रिकरण और उसकी निरंकुश विमुक्ति के आंदोलन की शुरुआत के लिये भारत ही सबसे अच्छा स्थान है। सूचना सभी लोगों को उपलब्ध हो, यह विचार भारतीय इतिहास में, और गणतंत्र के आधुनिक लोकतांत्रिक ढ़ाचे में पूरी तरह अंतर्निहित है। पश्चिमी देशों की दवाओं की उच्च कीमत, पारंपरिक ज्ञान पर पेटेंट्स, और पूरे वैज्ञानिक संग्रह (कार्पस) तक सीमित पहुंच, यह सभी ज्ञान पर लगे अंकुशों का प्रतीक है, जिसे लोग पहचानते और समझते हैं।
भारत के लोग इस बात को समझते हैं कि जब ज्ञान कुछ निगमों की निजी संपत्ति बन जाती है, तो इससे समाज को कितना ज्यादा नुकसान पहुंचता है। भारत में सामाजिक मुद्दों पर बहस करना परंपरा है। ऐसा ही गांधी जी ने भी किया, जब उन्होंने अस्ट्रांग में खुल कर भाषण दिया था। ऐसा ही सम्राट अशोक ने किया था, जब उन्होंने सभी धर्मों के लिए
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