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विष्णु शास्त्री चिपलूनकर

कालेज मे विष्णु शास्त्री का यद्यपि नाम नहीं हुआ, यद्यपि उनकी तेजस्विता का प्रकाश नही पड़ा; और यद्यपि एक-आध को छोड़कर उन्हे कोई छात्रवृत्ति नहीं मिली; तथापि उनकी विशाल बुद्धि का अंकुर गूढरूप से उस समय उनके हृदय में उगकर धीरे-धीरे बढ़ रहा था। राजा दशरथ के विषय मे कालिदास ने कहा है---

अतिष्ठत्प्रत्ययादेपसन्तति. स चिरं नृप.।

प्राड् मन्थनादनभिव्यक्तरत्नोत्पत्तिरियार्णवः॥

---रघुवंश

समुद्र को मथने के पहले यह कौन जानता था कि उससे इतने रत्न निकलेगे। विद्यार्थी की दशा मे विष्णु शास्त्री के बुद्धि-वैभव का भी पता किसी को नही लगा। उनकी बुद्धि शान्त थी; परन्तु सांसारिक व्यवहारो के घर्षण का संस्कार होते ही वह जग उठी और अपना विकास दिखलाने लगी। हॉ, उनके कालेज मे रहने के समय एक भविष्यद्वाद अवश्य हुआ था और वह सर्वथा सत्य निकला। जिस समय विष्णु शास्त्री डेकन-कालेज मे थे उस समय डाक्टर कीलहार्न वहाँ अध्यापक थे। एक बार उनके एक परिचित विद्वान् जर्मनी से इस देश मे आये और उन्होंने डेकन-कालेज की देख-भाल की। उस समय विष्णु शास्त्री के विशाल सिर, भव्य कपाल और उनकी विलक्षण बनावट को देखकर उन्होने यह कहा कि "यह युवक विद्वान्, प्रतिष्ठित और कीर्तिमान होगा"। उस समय किसी