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वामन शिवराम आपटे, एम॰ ए॰

निघृण मृत्यु ने उदरसात् कर लिया। पति भी गया; एक पुत्र भी गया! इस दुःख-परम्परा को वामनराव की माता न सहन कर सकी। शोकाकुल होकर, वही कोल्हापुर में, वह भी अपने पति और पुत्र की अनुगामिनी हो गई। आठ ही वर्ष के वय में वामनराव निराश्रय और अनाथ हो गये। पिता भी नहीं! माता भी नहीं!!

अनाथों का नाथ ईश्वर है। निराश्रयों का आश्रय भी वही है। वामनराव यद्यपि माता-पिता-हीन हो गये, तथापि वे अकारण-कारुणिक परम पिता जगदीश्वर के पूर्ववत् वात्सल्य-भाजन बने रहे। उसी ने उन पर अपना वरद-हस्त रखकर, और इस अपरिमेय दुःख को सहन करने की शक्ति देकर, उनको धैर्य धारण करने में समर्थ किया।

दक्षिण में दरिद्र ब्राह्मणो के लड़के––विशेषतः विद्यार्थी––भिक्षा से अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। वामनराव को भी यह वृत्ति अवलम्बन करनी पड़ी। पौराणिक वामनजी की वृत्ति को स्वीकार करने के लिए, दुर्दैव द्वारा इस प्रकार विवश किये जाने पर, वामनराव ने अपने वामन नाम को सार्थक कर दिया। आठ ही वर्ष के वय से भिक्षाटन से उदर-पूर्ति करते हुए वामनराव ने विद्या-सम्पादन करना आरम्भ किया। दो तीन वर्ष में मराठी भाषा भली भाँति सीखकर वे कोल्हापुर की अँगरेज़ी पाठशाला में प्रविष्ट हुए। वहाँ जाने पर उनकी वृत्ति वही बनीं रही। उसमें अन्तर न पड़ा। उनको