पृष्ठ:क्वासि.pdf/९

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की एक महती शक्ति में परिणत कर दिया । माक्र्स का यह प्रथम सूत्र पदार्थ- वादी दर्शन के इतिहास में निःसन्देह एक उत्तुर : है। अपने भौतिकवादी दर्शन के प्रतिपादन में मार्क्स न केवल महा मेधावी, वरन् एक महामानव के रूप में प्रकट हुए हैं। मार्क्स के इस प्रथम सूत्र में जो दूसरी मान्यता है वह मुझे ग्राम नहीं है। और इसी कारण प्रथम मान्यता की सार्वभौमिक सत्यता भी मैं स्वीकृत नहीं कर सकता । प्रथम सूत्र की दूसरी मान्यता क्या है ? वह यह है कि यथार्थ, 'सत्य (Reality ), वही है जिसे हम इन्द्रियों द्वारा समझते, ग्रहण करते, हृदय- ङ्गम करते हैं। मैं अपने प्रगतिवादी बन्धुश्नों से पूछता हूँ कि क्या यह मान्यता ठीक है ? इन्द्रियोपकरण द्वारा जो कुछ भी हमें उपलब्ध होता है, क्या केवल मात्र वही सत्य है ? वही यथार्थ है ? मैं यह नहीं कहता कि वह अयथार्थ है। पर, यथार्थ को, सत्य को, इन्द्रिय-बोध द्वारा सीमित करना-डलके परे सब- कुछ असत्, अयथार्थ है, ऐसा मान लेना, मेरी सम्मति में तर्कशून्य आग्रह है। ज्ञानोपलब्धि-साधन-शास्त्र को देखने से पता चलता है कि इन्द्रियाँ जो कुछ भी ग्रहण करती है वह एक झाई के रूप में होता है। वास्तविक, यथार्थ, -अर्थात् बाह्य जगत् का इन्द्रिय-गृहीत स्वरूप-क्या वैसा ही है जैसा हम उसका अपनी इन्द्रियों द्वारा बोध करते हैं ? इस प्रश्न का तर्कपूर्ण उत्तर 'हाँ' में आज तक देने का साहस, मार्क्सवादियों के अतिरिक्त, अन्य बहुत कम लोगों को हुआ है। क्या यह सत्य नहीं है कि हमारे श्रापके लिए जो यह रंगबिरंगा जगत् है, वह एक रंग-अन्ध मानव के लिए नहीं है ? तब क्या उस विचारे रंग-अन्ध जन का इन्द्रियों के द्वारा गृहीत यह जगत् अयथार्थ है ? विकार किसमें है ? उस रंग-अन्ध में, क्योंकि उसकी संख्या कम है ? तब क्या हम बहुसंख्या के बल पर तत्व निरूपण करेंगे? क्या शाश्चर्य कि विकार हम बहुसंख्यकों में ही हो ? और क्या प्राश्चर्यं कि यह सतरंगी जगत् वास्तव में रंगरहित, अरंगी हो? हम लोग उस मानव को, जो रंग नहीं देखता, रंग- अन्ध कहते हैं। पर, यदि वह हमें भ्रमान्ध कहे तो ? मेरे कथन का केवल- मात्र अर्थ यह है कि केवल इन्द्रिय संवेदन को ही यथार्थ का एक मात्र साक्षी मान लेना मुझे भ्रामक प्रतीत होता है । वह वास्तव में भ्रामक है। यदि इन्द्रिय संवेदन वास्तव में यथार्थ का बोधक है, यदि वह वास्तव में हमें, जो भी वास्तविकं जगत्-स्वरूप है, उसकी छाया मात्र का बोध नहीं कराता है, तो स्वन-जगत् का क्या होगा ? स्वम जगत् की छायाएँ, जो हमारे मस्तिष्क पर अंकित है, स्वप्न में यथार्थ जगत् के रूप में श्रा जाती हैं। तय,