अनुशासन का उल्लंघन होने पर उन्हें दण्डित किया जाता था। इन बातों से राष्ट्रीय उत्पादन में कमी हो रही थी। श्रमिकों की भाँति ही कृषक भी साम्यवादी शासन से असन्तुष्ट थें। खास कर इसलिए भी कृषक असन्तुष्ट थें कि शहरी श्रमिकों की खाद्य की खपत किसानों से दुगुनी थी। उन पर ऋणों का भी भार था। चीनी विश्वविद्यालय और टैक्नीकल स्कूल के छात्र भी असन्तुष्ट थें। उन पर पूर्वी योरोप की घटनाओं की छाप थी। शासन उनके प्रति कठोर रुख रखता था। बुद्धिजीवी लोगों के चीनी साहित्य के सम्बन्ध में भी साम्यवादी सरकार को शिकायत थी कि वे गलत नीति को अपना रहे हैं। उनकी विचार धाराएँ दक्षिण पक्षी है। कुछ साहित्यकारों ने साम्यवादी साहित्य की एक रूपता तथा नीरसता की आलोचना की थी। उन्होंने यह भी संकेत किया था कि यह एकरूपता और नीरसता लेखकों के इस भय का परिणाम है, कि कहीं वे साम्यवादी दल द्वारा स्वीकृत मार्ग से न भटक जाएँ। चीन के सांस्कृतिक मन्त्री शेन-येन-पिग ने इस सम्बन्ध में ये विचार प्रकट किये थें कि लेखकों का इस सिद्धान्त पर विश्वास कि जीवन के अनुभव लेखक की सबसे बड़ी पूँजी है तथा यथार्थवादी चित्रण साहित्य की आत्मा है—गलत है। इससे लेखक माक्स और लेनिनवाद के सैद्धान्तिक सुधार का रुख नहीं अपना सकते। परन्तु चीनी साम्यावादी प्रधान माओ-त्से-तुग का इस सम्बन्ध में यह कहना था कि सब फूलों को एक साथ फूलने दो, और विभिन्न विचार-धाराओं की प्रतियोगिता होने दो। चीनी साम्यवादी नेता की यह सूक्ति सर्वोच्च राष्ट्रीय परिषद् के गुप्त अधिवेशन में घोषित की गई थी जिससे चीन अपने पिछड़ेपन का परित्याग करके वैज्ञानिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों से कदम मिला कर आगे बढ़ सके। वास्तविक बात यह थी कि मानो-त्से-तुग यह बात अनुभव कर रहे थें कि पुरानी नीति ने साहित्यिक विषयों को केवल श्रमिकों, किसानों और सैनिकों तक सीमित कर दिया था।
सन् १९४९ में जब साम्यवादी सरकार चीन में बनी, तब उन्हें समाजवादी यथार्थवाद को अमल में लाने का मौका मिला। और चीन के कुछ अत्यधिक प्रसिद्ध लेखकों ने अपनी लेखनी उठा कर रख दी। चीन के