बार चीन गए थें। शुग विवरणों से पता लगता है कि सुमात्रा के राजा अपने नाम के आगे श्री लगाते थे। जावा के सम्बन्ध में तो वाल्मीकि लिखते है— "यवद्वीप सप्त राज्यो यशोभित सुवर्ण—रूपक द्वीप सुवर्ण कर मण्डितम्।" चीनी लोग यवद्वीप को ये-सी-ओ, कहते थें। ई॰ स॰ ७४ में सौराष्ट्र के राजा प्रभुजय-मय का मन्त्री 'आर्जशक' जावा गया था और वहाँ अपने राज्य की स्थापना उसने की थी। इसके बाद कलिंग के लोगों ने वहाँ भारतीय उपनिवेश स्थापित किए। यकार्ता के निकट जो शिलालेख प्राप्त हुए हैं, उनसे ज्ञात होता है कि वहाँ के राजा पूर्णवर्मा ने ६ हजार एकसौ वाईस धनुष लम्बी गौमती नदी खुदवाई थी और ब्राह्मणों को सहस्त्रों गौए दान की थी। सारूदनगर वैभवशाली हिन्दू राजधानी थी। फाहियान ने भी वहाँ प्रबल हिन्दू राज्य की बात कही है। काश्मीर के राजकुमार गुणवर्मा ने वहाँ बौद्ध धर्म का प्रसार किया था। जावा से डेढ़ मील के अन्तर पर वाला द्वीप है जहाँ के निवासी आज भी हिन्दू हैं। कहावत है कि शुद्धोदन की रानी यही की बेटी थी। जावा के ऊपर गोनियों द्वीप में महाकाया नदी के किनारे एक शिलालेख मिला है, जिसमें वहाँ के राजा मूलवर्मा के यज्ञों का उल्लेख है। जिसमें उसने ब्राह्मणों को स्वर्ण, बीस सहस्त्र गौए और भूमि तथा अन्य वस्तुओं का दान दिया था। सैलवर्स की कर्मनदी के किनारे तलहटी में बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा मिली है जो पीतल की है। खेमे टूट जाने पर भी यह ७५ सै॰ मी॰ से भी ऊँची है। नालन्दा के 'धर्मपाल' और 'वज्रबौद्ध' चीन जाते हुए यहाँ ठहरे थें। उस समय यह द्वीप समूह बिक्री और व्यापार का केन्द्र था। चीनी विवरणों के अनुसार प्रति दिन अकेले सुन-सुन नगर में पूर्व और पश्चिम से दस हजार नर-नारी आया करते थें। जावा के शैलेन्द्र शासकों का समृद्ध राज्य दूर-दूर तक फैला हुआ था। अरब यात्री सुलेमान के कथनानुसार इसकी नौ-सेना की प्रसिद्धि चीन और भारत तक थी। राजा की दैनिक आय २०० मन सोना थी। कपूर, चन्दन, हाथीदाँत, टिन और आबनूस का यह प्रमुख व्यापार केन्द्र था। १६ वीं शताब्दी में इसलाम के आक्रमण से शैलेन्द्र साम्राज्य भंग हो गया। परन्तु भारत और इण्डोनेशिया के बीच जो सांस्कृतिक सम्बन्ध था, उसने सन् १९४९ में स्वाधीन हुए इण्डोनेशिया और भारत के बीच स्वाधीन भारत की मैत्री की
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