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खग्रास

उसे भूखण्ड के चारों ओर कक्ष में सक्रिय करने में सफल हो चुका था। इसके साथ तेजी से चक्कर काटने वाले ८ अतिरिक्त राकेट और सम्बद्ध थें। इस खण्ड का वजन ४,००० पौण्ड था। सक्रिय होते ही उसने ७,५०० पौण्ड आगे धक्का देनी की शक्ति उत्पन्न कर ली थी।

तीसरा खण्ड सर्वथा नवीन निर्माण था। इसमें सूखे ईंधन के सहारे चलने वाला 'मोटर' प्रयुक्त होता था जिसका निर्माण एलिगेनी वैलिस्टिक प्रयोगशाला में हुआ था। इस खण्ड का वजन केवल ४०० पौण्ड ही था। इसी के अग्रभाग में यन्त्रपुंज सम्बद्ध था। इस राकेट की पृथ्वी पर ही शून्याकाश का सर्जन करके अच्छी तरह परीक्षा कर ली गई थी। इस खण्ड की नासिका में सटे हुए सम्पूर्ण यन्त्रपुंज को अन्तिम राकेट समेत ऐसी यान्त्रिक व्यवस्था से सम्बद्ध कर दिया गया था कि ज्योंही पहिला और दूसरा खण्ड प्रथक हो, यह खण्ड तेजी से आकाश में आगे बढ़ सके। यन्त्र पुंज में एक ऐसा अन्तिम राकेट भी लगा हुआ था जो चन्द्रलोक की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के सीमा क्षेत्र में प्रविष्ट होते ही यन्त्र पुंज की गति को इस तरह नियन्त्रित करता रहे कि वह यन्त्र पुंज चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति से एक बार ही चन्द्रमा की ओर आकृष्ट न हो जाय। इस राकेट का काम यह था कि वह यन्त्र पुंज को चन्द्रलोक के चारों ओर कक्षा में डाल दे। इस अन्तिम राकेट सहित 'यन्त्रपुंज' का भार ८५ पौण्ड था जिसमें यन्त्र पुंज का भार केवल २५ पौण्ड ही था। ऐसी आशा थी कि यह त्रिखण्डी राकेट पृथ्वी से चन्द्रलोक तक की लगभग ढाई लाख मील की यात्रा ढाई दिन में पूरी कर लेगा। हवाई द्वीप में हमने ऐसी व्यवस्था कर रखी थी कि ढाई दिन बाद, यह ज्ञात होने पर कि यन्त्रपुंज चन्द्र मण्डल में पहुँच गया, तुरन्त 'रेडार' प्रक्रिया प्रयोग से एक ऐसा यान्त्रिक संकेत भेजा जा सके, जिसके स्पर्शमात्र से "यन्त्रपुंज" से सम्बद्ध अन्तिम राकेट प्रज्वलित होकर सक्रिय हो उठे।

कुल व्यवस्था ऐसी थी कि पृथ्वी से प्रेषक यन्त्रों द्वारा प्रेषित संकेतों के सहारे ही पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार ढाई लाख मील की यात्रा के बीच पहिले एक, फिर दूसरा और तदुपरान्त तीसरा राकेट प्रज्वलित होकर