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खग्रास

निर्धारित मंजिल तय करता। परन्तु यह जोखिम तो थी ही कि यत्किंचित भी यान्त्रिक दोष अथवा किसी भी आकाशीय दुर्घटना द्वारा कोई यान्त्रिक अस्तव्यस्तता राकेट-बटन को पथ भ्रष्ट कर सकती थी जिससे सम्पूर्ण वाहन ही जल कर भस्म हो सकता था। अन्ततः ऐसा ही हुआ।

अमरीका की यह वैज्ञानिक मध्यायोजन गणित सम्बन्धी अत्यन्त जटिल और सूक्ष्म प्रक्रियाओं के द्वारा पूर्ण परीक्षित सम्वेदनशील यन्त्रों की सहायता से किया था। जिस में आकाशीय-तरंगों के नियोजित प्रयोग द्वारा पृथ्वी से सहस्त्रों मील की दूरी पर नियन्त्रण में रखने की व्यवस्था थी। इस त्रिखण्डी महत्तर वाहन की उड़ान वस्तुत तीन लाख छोटे-बड़े जटिल यन्त्रों पर आधारित थी। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की परिधि को पार करने के लिए यह अनिवार्य था कि गतिशील यन्त्रों की गति कम से कम २५ हजार मील प्रति घण्टा हो। ऐसा न होने पर यह भय था कि यान एक निश्चित दूरी तक जा कर फिर पृथ्वी की ओर खिंच आएगा। परन्तु यदि वह इस गति से पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की अन्तिम सीमा तक चला जाय और वहाँ भी उसकी गति में कोई ह्रास न हो तो वह तुरन्त दूसरे ग्रह के सीमा क्षेत्र में प्रवेश कर जायगा। इन सभी बातों का वैज्ञानिकों ने अनुमान लगा लिया था। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से परे चन्द्रमा की परिधि में राकेट के सहारे इस यन्त्र पुंज के फेंके जाने का उद्देश्य यह था कि वे यह पता लगा सके कि चन्द्रमा के चारों ओर चुम्बकीय क्षेत्र है या नहीं। यदि है तो कितना। इसके अतिरिक्त वे चन्द्रमा के उस पिछले भाग का भी निरीक्षण करना चाहते थें, जो अब तक उनकी दृष्टि से ओझल है। यदि वे इस प्रयोग में सफल हो जाते तो उस विकिरण-परत के सम्बन्ध में भी खोज करते जिसकी विद्यमानता का पता अन्तरिक्ष में फेंके गए "एक्सप्लोरर" भू-उपग्रह से लगा था। वे यह भी जानना चाहते थें कि चन्द्रलोक में 'वैक्टीरिया' की जाति के सूक्ष्म कीटाणु है भी या नहीं। इसके अतिरिक्त वे उन काँच के अति सूक्ष्म गोलाकार कणों के सम्बन्ध में भी पता लगाना चाहते हैं जो शून्य में मिलते है। सम्भव है वे कण चन्द्रमा से ही आते हो।