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खग्रास

भागो मे फट गई और उसमे से सिर से पैर तक एक विचित्र लसलसे से मटमैले रग के आवेष्टन मे लिपटी हुई मनुष्य मूर्ति निकल पडी। पहले उसने सिर का आवरण हटाया, और मुक्त वायु मे दो तीन बार जोर-जोर से सास ली। अब भी उसके सारे अग प्रत्यग उस अद्भुत आवेष्टन मे लिपटे हुए थे जिसमे बिजली के असख्य अति सूक्ष्म तारो का जाल फैला हुआ था, जिनका सम्बन्ध आवेष्टन मे स्थित अनगिनत छोटे बड़े यन्त्रो से था। इसके अतिरिक्त वह सारा ही आवेष्टन ताम्बे और किसी अत्यन्त हल्की धातु के तारो से निर्मित था, उसकी बनावट ऐसी थी कि जीवन की सारी ही क्रियाएँ उसी पोशाक मे निहित थी। यहाँ तक कि श्वास प्रश्वास की प्रणाली भी उसमे थी। जिसका लाभ उस आवेष्टन के धारण करने वाले पुरुष को उसके शरीर के रोम कूपो द्वारा मिल रहा ला। उसका न हृदय काम कर रहा था न नाड़ी सस्थान, न फुफुस। ये सारी ही क्रियाएँ इस आवेष्टन द्वारा उसे अपने शरीर के रोम कूपी द्वारा प्राप्त हो रही थी जो उसके शरीर से लिपटा हुआ था।

खुली वायु मे श्वास लेते ही पुरुष की सब स्वाभाविक जीवन क्रियाएँ लौट आईं। हृदय अपना काम करने लगा और नाडियो मे रक्त तेजी से घूमने लगा। फेफड़े स्वच्छ वायु खीचने और गन्दी वायु बाहर फेकने लगे। कुछ ही क्षणो में स्वस्थ होकर उस पुरुष ने वह आवेष्टन अपने शरीर से पृथक् कर दिया और एक बटन दबाकर उसकी सब गैस निकाल दी। अब वह सिकुड़ कर छोटा सा ढेर हो गया जिसे समेटने पर उसकी आकृति एक साधारण अटैचीकेस जैसी हो गई। आवेष्टन के बाहर आते ही उस पुरुष की भव्य आकृति और सुन्दर पोशाक स्पष्ट दीखने लगी। पुरुष की आयु कोई अडतीस बरस की होगी। वह एक बड़े ही दृढ शरीर का पुरुष था। रग उसका अत्यन्त गोरा था। ज्यो ज्यो ताजा वायु मे वह श्वास लेता जाता था, उसके चेहरे पर सुर्सी और आँखो मे चमक बढ़ती जाती थी। उसने काले रंग का एक सूट धारण किया था जो एकदम नया था। उसका चेहरा ऐसा था जैसे अभी-अभी उसने शेव किया हो, बालो मे जैसे इसी क्षण कधा किया हो, जूतो पर जैसे