सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:खग्रास.djvu/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६
खग्रास

अभी पालिश किया हो। उसने एक अगडाई ली. सूटकेस उठाया, और सीढियाँ उतर कर नीचे आ भीड मे मिल गया। किसी ने भी उसे नही देखा किसी ने भी उस पर लक्ष्य नही किया। अटैची को दाहिने हाथ मे लटकाए हुए, वह भीड मे आकर इधर उधर किसी को देखने लगा। एक बैरा से उसने एक चुरुट लेकर सुलगाई और आगे बढा।

भीड मे घुसकर इधर-उधर वह किसी को खोजने लगा। उसे अधिक खोजना नहीं पडा। उसने देखा--एक युवती भीड से छिटक कर जरा एकान्त मे एक झाड के निकट अपने कान से एक छोटा-सा यन्त्र लगाए खडी है। तरुण लपकता हुआ युवती के पास जा पहुँचा। युवती उसे देखते ही हर्ष से विह्वल हो उसकी ओर लपकी, उसने कहा---"ओह जोरोवस्की, तुमने पूरे तीन मिनट देर लगादी। मैं तो डर गई थी। खैर कहो, तुम्हारी यात्रा निर्विघ्न हुई?"

"बिल्कुल निर्विघ्न।"

"क्या तुम थक गए हो?"

"तनिक भी नही।"

"तुम अपनी यात्रा मे सफल हुए?"

"मैंने पूरे तीन दिन चन्द्रलोक में व्यतीत किए और लगभग चार सौ फोटो लिए हैं।"

"मैं तुम्हे मुबारकवाद देती हूँ। जोरोवस्की, तुम आज ससार के सबसे अद्भुत पुरुष हो।"

"हॉ प्रिये, कदाचित्। मानव इतिहास का सबसे अद्भुत पुरुष। लेकिन तुम मुझे एक पैग वोदका दो।" "क्या, क्या ड्रिक नही है?"

"न, दिल्ली ड्राई है। सुना नही था तुमने?"

"ओह, मै तो भूल ही गया, लेकिन मेरा तो कण्ठ सूख रहा है।"

"तो चलो, होटल चलें। अशोक होटल मे मैंने अपने कमरे के साथ ही दो कमरे तुम्हारे लिए ठीक कर रखे है।"

"बहुत अच्छा किया। किन्तु मेरे यन्त्र?"