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खग्रास


"कला और साहित्य से मुझे प्रेम तो है, पर आप मुझे व्यवसाय से शिकारी कैसे कहती है?"

"यह तो आपके वेश से ही प्रकट है। हाथ मे राइफल, कार्तूस की पेटी कन्धो पर सजोए इधर मै कई दिन से आपको इन पर्वतो मे घूमते देखती हूँ।"

"सच,पर मैने तो आपको कभी नहीं देखा?"

"देखते कैसे? आपकी दृष्टि तो अपने शिकार पर ही रहती है, मै तो आपका शिकार हूँ नहीं।" बाला ने एक मुक्त मुस्कान के साथ ये शब्द कहे।

तिवारी ने हँस कर कहा—"स्वीकार करता हूँ मे अन्धा हूँ।"

"लीजिए, आप तो कविता करने लगे। लेकिन आप भीतर आइये।"

तिवारी सीढियाँ चढ कर बराण्डे मे आ गए। बाला उसे अपने ड्राइग रूम मे ले गई। ड्राइग रूम की सज्जा देख कर तिवारी की आँखे फैल गई। वह किसी बडे राजा महाराजा का प्रावुनिकतम फर्नीचर से परम सुसज्जित ड्राइग रूम था। फर्नीचर सब नया और प्रथम श्रेणी का था। सफाई और व्यवस्था मे कही चूक न थी। उन्होने कहा—"आप क्या यहाँ बहुत दिन से रहती है?"

"नही, कोई दो साल से हम लोग इधर आए है। लेकिन हम लोग है इसी पार्वत्य प्रदेश के निवासी।"

"लेकिन आपको तो मै अकेली ही देख रहा हूँ।"

"पापा बाजार गए है। आज उनका बाजार का दिन था।"

"क्या आपके साथ कोई और नौकर चाकर नही है?"

"बहुत है। पर आप उन्हे देख नही सकेगे। वे अदृश्य है।" बाला ने हस कर कहा, "बैठिए आप, मैं अभी आपके लिए चाय मगाती हूँ।" इतना कह कर उसने एक बटन छुआ, और कुछ ही क्षणो मे एक हल्की-सी घण्टी की झंकार करती हुई दूसरे कमरे से एक छोटी-सी ठोस सोने की रेलगाडी मन्द