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खग्रास

चाल से सरकती हुई टेबुल पर उनके सामने रुक गई। गाडी मे सोने ही के पात्रो मे चाय और नाश्ते के शाही सामान थे। सब गर्म और ताजा।

तिवारी आश्चर्य से उस सोने की छोटी-सी रेलगाडी को देख रहा था जो शिल्प का अद्वितीय नमूना था। बाला ने नाश्ते का सामान टेबुल पर सजाया। गाडी फिर पीछे लौट गई।

"यह सब तो जादू है, है न?"

"जादू?" बाला ने हस कर कहा। "आप सत्रहवी शताब्दी मे नही है, बीसवी मे है। यह न भूलिए। लीजिए—कुछ खाइए।"

उसने मिष्ठान की एक डिश तिवारी के सामने सरका दी। प्रत्येक चीज अत्यन्त स्वादिष्ट थी।

"सिगरेट तो आप पीते हैं। मैने देख लिया, किन्तु क्या पान भी खाते है?"

"जी नही, पान मैं नहीं खाता।"

"अच्छा करते है आप। ये तली हुई मछली चखिए, इधर नहीं होती। ये आरटिक समुद्र के गहरे पानी मे होती है। और यह भुना हुआ तीतर साइबेरिया प्रदेश का है।"

"क्या मै स्वप्न नहीं देख रहा हू?"

"भारतीय जन स्वप्न द्रष्टा ही होते है। इसी से तो वे शताब्दियो रूढि और दासता के बन्धनो मे बद्ध रहे। अब भारत मुक्त हुआ है। आप जैसे तरुणो को अब जाग्रत रहना चाहिए। स्वप्न के देखने से काम नही चलेगा।" बाला ने नकली गम्भीरता से कहा—फिर वह खिलखिला कर हस दी। इसके साथ ही उसने फिर बटन छुआ और इस बार फिर वही रेलगाडी उसी भॉति घण्टी की मन्द झनकार करती आई और इस बार उस पर अनेक भॉति के सिगरेट-सिगार लदे थे जो सब उच्चकोटि के थे।

तिवारी ने कहा—"जादू नही तो यह सब विज्ञान की करामात है?"

'निसन्देह, पापा को विज्ञान का शौक है?"