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खग्रास


"बात जो है वही सुन लेना। भाभी कहाँ है?" उत्तर की प्रतीक्षा न करके तिवारी भीतर बढ गए। रमा अंगीठी जला कर खाना बनाने की तैयारी कर रही थी। तिवारी ने कहा—"जल्दी करो भाभी, जरा आपको चलना पडेगा। मुन्नी कहाँ है? क्या सो रही है, अच्छा मै उसे जगाता हूँ, तब तक आप तैयार हो जाइए।"

"आज तो तुम वायु के घोडे पर सवार हो तिवारी। क्या बात है?"

"बात पीछे पूछ लेना—पहिले आप तैयार हो जाइए।"

"लेकिन जाना कहाँ है?"

"बस, उस बँगले तक।"

"क्या उस खप्ती आदमी से मुलाकात करनी होगी?"

"नही नहीं, वह बात नही है।"

इसी समय दिलीप कुमार भी वहाँ आ पहुचे, उन्होने हंसते हुए कहा—"तिवारी तो मालूम होता है, भंग खा आया है।"

"भाई साहब फजूल समय मत बिताइए—जल्दी कपडे पहिन लीजिये, और भाभी। तुम भी।

"खैर, सनकी की सनक का मजा भी लेना चाहिए। लेकिन खाना तो खा लिया जाये।"

"खाना पीना सब वही होगा।"

"कहाँ?"

"उस बँगले मे—कहा तो।"

"क्या वहाँ हमारी दावत है?"

"हाँ दावत है। लो तैयार हो।"

थोडी ही देर मे वे सब उस बँगले की ओर जा रहे थे। जब वे वहाँ पहुचे मध्यान्ह का सूर्य आकाश मे चमक रहा था। बँगले की साजसज्जा और असाधारण बहुमूल्य ठाठ देखकर दिलीप कुमार और उनकी पत्नी स्तम्भित रह गई। परन्तु जब उनकी नजर प्रतिभा पर पड़ी तो वे आश्चर्य से जड़ बने खड़े रह गये।