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पृष्ठ:खग्रास.djvu/३४०

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खग्रास


प्रतिभा ने करबद्ध उन्हें प्रणाम किया। और आगे बढ कर उनका स्वागत किया। परन्तु इस समय वह अत्यन्त गम्भीर हो रही थी—और इस गम्भीरता की सुषमा ही कुछ और थी।

अब दिलीपकुमार का आश्चय बढाते हुए तिवारी ने कहा—"भाई साहेब अब आपको ही सब कुछ करना होगा। आप तो जानते ही है कि संसार मे आपके समान मेरा कोई दूसरा सगा नहीं है और भाभी, तुम्हे प्रतिभा का अभिभावक बनना होगा।"

"लेकिन तुम चाहते क्या हो तिवारी?"

"आप पुरोहित का स्थान ग्रहण कीजिये। आपके समक्ष हम दोनो—प्रतिभा और मै—जीवन भर के लिए एक होते है। हम चन्द्र-सूर्य और आप दोनो की साक्षी मे यह प्रतिज्ञा करते है।"

दिलीप कुमार अभी असमन्जस मे ही पड़े थे—कि रमा मुसुकाती हुई आगे बढकर प्रतिभा के निकट आ खड़ी हुई। एक प्रकार से उसे अपने आलिगन पाश मे बॉधते हुए उसने कहा—"आओ बहिन, आज तुम्हारा सौभाग्य का दिन है।" अब दिलीपकुमार के होठो पर भी मुस्कान दौड़ गई। उन्होने भुनभुनाते हुए कहा—"मैं तो पहिले ही समझ गया था कि मामला क्या है।" तिवारी का हाथ पकड कर प्रतिभा के पास ले गये और रमा ने प्रतिभा का हाथ तिवारी के हाथ मे देकर इधर उधर देखा। ताक पर एक शंख रखा था। उन्होने लपक कर वह शंख उठा लिया और जोर से शंख फूंक दिया। बालिका खिलखिलाकर हँस पड़ी। प्रतिभा ने लपककर उसे गोद मे उठा लिया। रमा ने सिन्दूर प्रतिभा की मॉग मे भर दिया।

अब दावत की बारी थी। दावत क्या थी तिलस्म था। वही ठोस सोने की रेलगाडी और असाधारण व्यजन।

धीरे-धीरे तिवारी ने गूढ पुरुष की सारी बाते बता दी। उनके आत्मविसर्जन की बाते सुनकर और इन दिव्य यन्त्रो को देखकर सब सन्नाटे मे रह गये। बडी देर बाद दिलीपकुमार ने कहा–"हमारा दुर्भाग्य रहा कि