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खग्रास

रही थी और सबके ऊपर लिजा तुम्हारी मूर्ति थी। जो उसी तरह डबडबाई आँखो से मेरी ओर ताक रही थी जिस तरह मैंने मास्को से रवाना होने के समय तुम्हे देखा। तुम्हारी उस मूर्ति ने मुझे एक बार साहस दिया और मैंने फिर एक बार अपने यान को चलाने की भरसक चेष्टा की। परन्तु अफसोस, उसका सारा ईधन चुक गया था और उसका कोई भी यन्त्र काम नहीं कर रहा था। केवल रेडियो अवश्य काम दे रहा था। शायद मेरी कमजोर कराहने की आवाज केन्द्र तक पहुँच रही थी और प्रोफेसर व्यग्र होकर मेरा नाम ले लेकर कह रहे थे---जोरोवस्की, सुनो, सुनो। तुम कहाँ हो? किस हालत में हो? बोलो, बोलो। बोलो।

पर मेरा बोल फूट नही रहा था। उस पदार्थ ने तो जैसे मुझे समूचा ही अपनी गिरफ्त में दबोच लिया था। बड़ी ही कठिनाई से मैंने टूटे फूटे स्वर में कहा---"मैं मर रहा हूँ प्रोफेसर। अलविदा।"

यह वाक्य ज्यों ही जोरोवस्की के मुँह से निकले, लिज़ा चीख कर उसकी गोद में गिर गई। और फफक फफक कर रोती रही। पर जोरोवस्की ने कहा, "मेरी प्यारी लिजा, इतनी अधीर न बनो। तुम तो देख ही रही हो कि मैं सही सलामत तुम्हारे पास हूँ। फिर केवल घटना सुनकर इस कदर घबरा गई।"

"ओफ, कैसी भयानक घटना तुम सुना रहे हो प्यारे जोरोवस्की। इसे सुनने को इस्पात के कान और पत्थर का दिल चाहिए।"

"ओफ, कैसी चमत्कारिक रीति से बच गया, यह तो सुनो।"

"ओह, न जाने तुम अब क्या सुनाने चले हो, खैर कहो।"

"मैं लगभग बेहोश और विवश होकर विमान में गिर गया। बहुत ही कम ज्ञान मुझे था। अकस्मात् ही मैंने देखा एक तीव्र प्रकाश चारो और फैल गया। मैं यद्यपि पूरी तौर पर कुछ भी देख समझ नहीं रहा था, पर वह तीव्र प्रकाश तो और भी तीव्रतर-तीव्रतम होता जा रहा था। इसी समय मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरा यान जरा हिला और इसके बाद ही एक भीषण धक्का उसे लगा। उस धक्के का वेग मैं सहन न कर सका और औंधे मुँह यान में