यह बात भी मैं हजरत साहब के सामने कह चुकी हूँ। मेरा तो यही कहना है कि मैं बिल्कुल बेकसूर हूं इसलिये हजूर दया करके मुझ अनाथ और निरपराध लड़की को छड़ दें। क्योंकि बेकसूर को दण्ड देना न्यायी हाकिम का काम नहीं है।"
मेरी बात सुन कर हाकिम ने मेरो ओर करुणापूर्ण दृष्टि से देखा और यों कहा,—"दुलारी, यह बात तो तुम जामती ही हो कि सात-सात खून हो चुके हैं?"
मैं बोली,—"हां, हुजूर! यह बात मैं जानती हूं।"
हाकिम,—"और यह बात भी तुमने मंजूर की है कि, 'हिरवा नाऊँ का गला तुमने घोटा'?"
मैं बोली,—"लेकिन मेरा इरादा खून करने का तो था नहीं।'
हाकिम,—"सुनो, दुलारी! तुमसे जितना सवाल किया जाय, तुम उसका ठीक-ठीक उतना ही जवाब दो।"
मैं,—"बहुत अच्छा।"
हाकिम,—"तो हिरवा की जान तुम्हारे ही हाथ से गई न?"
मैं,—"हाँ, साहब!"
हाकिम,—"ऐसी हालत में तुमको खून करने के जुर्म में क्यों न सजा दी जाय?"
मैं,—"हजरत! यहां पर यह भी तो विचारना चाहिए कि उस समय मेरे चित्त की क्या अवस्था थी? क्या उस समय की अपनी दशा का हाल मैंने अपने बयान में नहीं कहा है?"
हाकिम,—"कहा तो है, मगर इन सात-सात खूनों का इलजाम तुम पर लगाया गया है; ऐसी हालत में मैं किस तरह सुम्हें छोड़ सकता हूँ?"
मैं,—"तब फिर आपके जो जी में आवे, सो आप करें, क्योंकि आप हाकिम हैं। और मैं? मैं एक सदातुच्छ और अनाथ लड़की हूँ। ऐसी अवस्था में भला मैं आपकी मरजी के खिलाफ क्या