(१४२) खूनी भारत का यहां तक सुनकर साहब बहादुर ने मुझ से कहा- “ठहरो;" और इसके बाद भाई दयालसिंह से कुछ अंगरेजी में कहा; जिसे सुन कर भाईजी ने मुझने यों कहा,-"दुलारी! बस; अब हमलोगों का काम बन गया, इस लिये व्यर्थ जज के यहां की बातों को फिर से दुहराने की कोई जरूरत नहीं है। क्यों कि जज के सामने भी वही सब बातें हुई, जो मजिस्ट्रेट के सामने हो चुकी थीं और अन्त में जज ने तुम्हें फांसी की सज़ा दी । इस लिय अब फिर उन सब बातों के कहने की कोई ज़रूरत नहीं है । हां, कुछ और बात हुई हो तो उसे कहो । ” __यह सुनकर मैंने कहा,-"अब इसके आगे तो हुजूर; वही बात हुई, जो ऐसे मामलों में हुआ करती है । अर्थात् कई दिनों तक मुकदमे की पेशियां हुई, सरकारी वकील और जज ने मुझसे बड़ी कड़ी जिरहे की और अन्तमें मुझे "खूनी औरत" करार देकर जज ने फांसी का हुक्म सुना दिया ! बस, मैं उस दिन से फिर जेल के बाहर न की गई और यहीं पड़ी पड़ी अपनी जिन्दगी के दिन पूरे कर रही हूं। अच्छा, हुजूर ! अब मुझे क्या हुकुम होता है ?" __ यह सुनकर साहब बहादुर ने भाई दयालसिंह ले अंगरेजी में ) कुछ कहा, जिसे सुनकर उन्होंने मुझ से यों कहा--" बेटी, दुलारी ! अब हमलोग यहां जाते हैं । इस मामले पर खूब गौर करके तुम्हें कल या परसो इस बात की खबर की जायगी कि तुम्हारी रिहाई हो सकती है, या नहीं।" इतना कहकर वे उठ खड़े हुए, साहब भी उठ कर एक तरफ को बढ़े और धारिस्टर साहब ने उठते उठते मुझसे यह कहा--"कल तुम्हारे चचा साहब को लेकर मैं श्राऊंगा, _इसका जवाब मैंने केवल-" बहुत अच्छा-, कहकर दिया और वे सब चले गए। ... -- --