पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/१५१

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सात खून।


भले आदमी कायस्थ रहने हैं, उन्हीं के यहां मेरी नानी धन्धा करती थी और वहीं पर फिर हम दोनों बहिनें भी चाकरी करने लग गई थीं। मेरे मालिक लाला सूकीलाल और उनकी स्त्री सलोनीदेई हम दोनों बहिनों पर बड़ी दया करते थे। महीना तो हम दोनों का दोही रुपया था, पर पेट भर खाना और तन भर कपड़ा ऊपर से मिल जाता था। उससे हम दोनों मजे में अपना दिन काटती थीं और चार आना महीना घर का भाड़ा भी देदिया करती थीं। यों चार बरस तो हम लोगों के दिन मजे में कट गए, पर जब पांचवां साल शुरू हुआ, तो हम लोगों पर फिर मानों बिपत का पहाड घहरा पड़ा। उसकी कहानी यों है कि,—"उसी बीच लाला सुकीलाल और उनकी बीबी सलोनीदेई का प्लेग से परलोक वास होगया और उनके नौजवान बेटे, जो नए वकील हुए थे और जिनका नाम लूकीलाल था, हम दोनों बहिनों को बुरी नजर से देखने और छेड़ने लगे। उनकी औरत हमही दोनों के बराबर कच्ची उमर की बच्ची थी, इसलिये उस बेचारी का लूकीलाल पर कोई बस नहीं चलता था। आखिर, हम दोनों बहिनों ने आपस में यह सलाह पक्की की कि कहीं दूसरी नौकरी तलाश करके इस धन्धे को छोड़ देना चाहिए। बस, फिर हम दोनों दूसरे धन्धे की भी फिकर करतीं और उस पुराने धन्धे पर भी बराबर जाती थीं। सबेरे आठ बजे हम दोनों धन्धे पर जातीं और दीया बलते बलते अपने घर लौट आती थीं। मैं इतना भी न करती, क्योंकि मुन्नी एक दिन भी वहां नहीं रहना चाहती थी, पर लूकीलाल की नेक बीबी लौंगिया मेरी इतनी खुशामद करता थी कि उसका मुँह जाेहकर मुझसे उसका धन्धा छोड़ते नहीं बनता था। आखिर, वही काल-घड़ी आ पहुंची, जिसके कारण हम-दोनों बहिनों को इस जेल में आना पड़ा। बात यह हुई कि एक दिन जब सांझ होजाने पर हम दोनों अपने घर जाने के लिये जनाने किते से