में ही मरगई थी, तब मेरे बाप एक स्त्री से सगाई करके कलकत्ते चले गये। और हम-दोनों को मेरी नानी अपने घर कानपुर के सिरकी महाल में लेगई। उस समय मैं छःं और मुन्नी चार बरस की थी। हम लोगों के बाप जबसे गये, तबसे आज तक उन्होंने हमलोगों की कोई खोज खबर नहीं ली। नहीं मालूम कि अब वे कहां हैं, और जीते हैं या मरगये। मेरी नानी एक भले आदमी के यहां धन्धा करती थी और हम दोनों कुछ और स्यानी होने पर उसी सिरकी महाल की कन्या पाठशाला में पढ़ती थीं। जब मैं ग्यारह और मुन्नी नौ बरस की हुई, तब मेरी नानी ने हम दोनों का व्याह महेसरी महाल के दो लड़कों से कर दिया। वे दोनों भी सगे भाई थे और नौकरी करते थे। पर फूटे करम की गति तो देखिये कि सालभर के अन्दर ही हम दोनों की दोनों रांड होगई, और उसी सदमे में मेरी नानी भी कूंच करगई। फिर हम दोनों का कहीं भी ठिकाना न रहा। हम दोनों के सास—ससुर ने डाइन—डाइन कह कर हम दोनों को दुरदुरा दिया और इधर जले पेट की आग बुझाने का भी कोई सहारा न रहा। नानी के पास कुछ ज़मा पूंजी तो थी ही नहीं, इसलिये जब मकान के मालिक ने हम दोनों से चार महीने का एक रुपया किराये का मांगा तब हम दोनोंने लाचार होकर स्कूल छोड़ दिया और उसी जगह हम दोनों नौकरी करने लगीं, जहां मेरी नानी नौकरी करती थी।"
इतना कहकर पुन्नी ज़रा चुप होगई, क्योंकि बेचारी मुन्नी रोने लग गई थी। इसलिये मैंने और पुन्नी ने बहुत कुछ समझा बुझाकर उसे चुप कराया और ज़बरदस्ती सुला दिया। कुछ देर तक तो वह फिरभी सिसकती ही रही, पर अन्त में जब वह सोगई तब पुन्नी फिर अपना किस्सा यों कहने लगी।
पुन्नी ने कहा,—"उसी महाल में, जिसमें मैं रहती थी, एक