पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/१५०

विकिस्रोत से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१४६) खूनी औरत का में ही मरगई थी, तब मेरे बाप एक स्त्री से सगाई करके कलकत्ते चले गये। और हम दोनों को मेरी नानी अपने घर कानपुर के सिरकी महाल में लेगई । उस समय में छः और मुन्नी चार घरस की थी। हम लोगों के पाप जबसे गये, तबसे आज तक उन्होंने हमलोगों की कोई खोज खबर नहीं ली। नहीं मालूम कि अब वे कहां हैं, और जीते हैं या मरगये । मेरी नानी एक भले श्रादमी के यहां धन्धा करती थी और हम दोनों कुछ और स्यानी होने पर उसी सिरकी महाल की कन्या पाठशाला में पढ़ती थीं । जब मैं . ग्यारह और मुन्नी मों बरस की हुई, तब मेरी नानी ने हम दोनों का व्याह महेसरी महाल के दो लड़कों से कर दिया। वे दोनों भी सगे भाई थे और नौकरी करते थे। पर फूटे करम की गति तो देखिये कि सालभर के अन्दर ही हम दोनों की दोनों रांड होगई, और उसी सदमे में मेरी नानी भी कूच करगई। फिर हम दोनों का कहीं भी ठिकाना न रहा। हम दोनों के सास-ससुर ने डाइन-डाइन कह कर हम दोनों को दुरदुरा दिया और इधर जले पेट की आग बुझाने का भी कोई सहारा न रहा । नानी के पास कुछ जमा पूंजी तो थी ही नहीं, इसलिये जब मकान के मालिक ने हम दोनों से चार महीने का एक रुपया किराये का मांगा तब हम दोनोंने लाचार होकर स्कूल छोड़ दिया और उसी । जगह हम दोनों नौकरी करने लगी, जहां मेरी नानी नौकरी . करती थी।" इना कहकर पुत्री जरा चुप होगई, क्योंकि बेचारी मुन्नी रोने लग गई थी। इसलिये मैंने और पुत्री ने बहुत कुछ समझा बुझाकर उसे चुप कराया और ज़बरदस्ती सुला दिया । कुछ देर तक तो वह फिरभी सिसकती ही रही, पर अन्त में जब वह सोगई तब पुनो फिर अपना किस्सा यों कहने लगी। ..पुनी ने कहा,-" उसी महाल में, जिसमें मैं रहती थी, एक