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खूनी औरत का


और स्वरूपवान हैं। उनकी माता-पिता या स्त्री, कोई भी नहीं है और वे अकेले हैं। उनकी हार्दिक इच्छा तुम्हें अपनी अर्धांगिनी बनाने की है। मैंने उन्हें अपनी सहमति दे दी है और तुमसे भी मेरा यही अनुरोध है कि भगवान् की दया से इस विपत्ति से उद्धार पाकर तुम दीनानाथ-समान गुणवान् व्यक्ति की भार्या बनो। इसमें कोई दूषण नहीं है और जाति के होने के साथ ही उनका गोत्र अलग है। यद्यपि वे विलायत से ही आए हैं और साहबी टोप लगाकर कचहरी जाते हैं, परन्तु इतने परभी उन्होंने ब्राह्मणपने का आचार—विचार या शिखा—सूत्र नहीं त्यागा है। ऐसे अनुरक्त, सुशील और योग्य वर को पाकर तुम विरसुखिनी होगी और ऐसा होने से मुझे भी सन्तोष होगा। यह तुम निश्चय जानो कि यह बिलायत का बखेड़ा बहुत दिनों तक न चल सकैगा और एक न एक दिन यह सारा झमेला मिट जायगा और तब विलायत आने जाने वाले जाति से बाहर नहीं रह सकेंगे। ऐसा ज़रूर होगा, पर इसमें ज़रा देर है। वह यों कि जब दो चार हजार हमारे जाति के भाई विलायत से आवेंगे, तब विलायती भाइयों का एक बहुत बड़ा समुदाय खड़ा होजायगा, और तब फिर जाति वाले उस बड़े घड़े में से किसे किसे छेक छाक कर अलग करने की हिम्मत करेंगे?

अपने चचाजी की इतनी लम्बी चौड़ी बातें सुनकर मैं उनकी सारी इच्छाओं और कर्तव्यों को समझ गई, पर उस विषय में कुछ न कहकर मैंने उनसे यह पूछा,—"क्यों चचाजी! मैंने ऐसा क्या अपराध किया है कि जाति के भाई अब मुझे ग्रहण नहीं कर सकते?"

वे बोले,—"तुमने कुछ भी नहीं किया है और तुम्हारा कोई भी अपराध नहीं है। बरन् सच पूछो तो तुमारी सी सती और सुशीला कन्या जिस जाति में हो, उसके सन्मान के लिये सारे