उसके जाने पर मैं आड़ में से निकल पाई और पारी पारी से पुन्नी और मुन्नी को गले लगाकर बोली ,--"शाबाश! खूब काम किया तुम दोनों ने ! अब बच्चाजी को छुटी के दूध अच्छी तरह याद आजायेगे!
इसके बाद उन दोनों के साथ मैं अपनी कोठरी में आगई और जेलर साहब यह कहकर तुरन्त चले गये कि,--"मुझे अभी मजिस्ट्रट के इजलास में जाना है। अब लूकीलाल अगर जल से बच जाय तो भी जुर्माने से कभी नहीं बच सकता !"
निदान, उस दिन तो लूकीलाल जमानत पर छटा । दूसरे - दिम पुन्नी और मुन्नी का जंट साहब के रूबरू इज़हार हुआ, जिसमें उन दानों ने लूकीलाल को सारी शैतानी का हाल कह सुनाया। होती तो उस मुएं को कड़ी सज़ा, पर बहुत से वकील-मुखतारों ने मिलकर हाकिम की इतनी खुशामद की कि कई दिनों के बाद लूकीलाल सिर्फ दो सौ रुपया जुर्माने देकर छुटकारा पागया । उन रुपयों में से पचास रुपया पुत्री और मुन्नी को दिय गये ।"
यहां पर इस कहानी के पढ़ने वालों को यह बात समझ लेनी चाहिये कि जो शख्श मुझे मजिस्ट्रेट के इजलास में बेतरह घूर रहा था और जिसने उस इजलास से निकलन के समय मुझ पर अवाज़ा कसा था, वह लूकीलाल ही था, क्योंकि उसकी सूरत देख और आवाज सुनकर यह बात मैंने भली भांति समझ ली थी।"
लूकीलाल का झमेला तय होगया था, पर बेचारी पुन्नी और मुन्नी बहुत ही डरी जाती थी कि जल से छूटने पर लूकीलाल के हाथों से कैसे रिहाई पाई जा सकेगी ? मैं उन दोनों को बहुत ढांढ़स देती थी और बार वार समझाती थी कि,--"परमेश्वर पर भरोसा रक्खो, क्यों कि वही परमात्मा सबलों से दुर्बलों को रक्षा करता है।