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खूनी औरत का


माता की वह अवस्था देख कर उन्हें धर्ती में उतार दिया था। क्योकि कि उस समय मैं अपने आपे में न थी और उन स्त्रियों के रोकने पर भी बार चार पछाड़ खा खा कर अपनी माता के शप पर गिर गिर पड़ती थी।

संझा होते होते एक वैद्यजी को साग लेकर पिताजी लौट आए, पर जय उन्होंने घर का हाल देखा तो वे मूर्छित होकर मेरी माता के शव पर गिर गए । फिर वैद्यजी का क्या हुआ, यह तो मुझे नहीं मालूम पर हां, यह मैंने देखा कि गवं के लोग इक? होगए और रात के नौ बजते बजते मेरे पिताजी मेरी माता पो फंक और नहा कर घर लौट आए । मैंने भी उस समय माता के शव के साथ-गङ्गा किनारे जाना चाहा था, पर मुझे कई स्त्रियों ने पकड़ रक्खा था; इसलिये मैं गङ्गा तो न जाने पाई, पर हां, जब मेरे पिता घाट से लौटकर घर मागए, तष कुएं पर मैं महलाई गई।

फिर, तब गावं की स्त्रियां तो अपने अपने घर गई और हम दोनो ( पिता-पुत्री ) में सारी रात रो-पीट कर गवाई । यद्यपि मेरे पिता मुझे बहुत कुछ ढाढ़स देते और समझाते बुझाते थे, पर जब अपनी प्यारी और सुशीला पत्नी का ध्यान उन्हें हो आता, तो वे बहुत हो विलाप करने लगते और उनका कलपना देखकर मैं भी बहुत ही विफल होती और छाती मूड़ कूट कूट कर बहुत ही घोर विलाप करने लग जाती थी।

खैर, किसी किसी तरह दस दिन बीते । फिर ग्यारह, बारह और तेरह दिन भी बीते और मेरे पिता ने मेरी माता के श्राद्ध से छुट्टी पाई। किन्तु हाय, जिस दिन मेरी माता की तेरहीं हुई थी, उसी रात को मेरे पिता भी पड़े और उन्हें दूसरे ही दिन गिलटी निकल साई । यह देखकर मेरे दुःख का कोई वारापार न रहा और सिवाय रोगे पीटने के और मैं कुछ भी कर धर न सकी । उस समय तक सारे गावं में पलेग फूट निकला था और वे लोग,