(३०) खूनी भारत का
चण्डाल ! अब तू उठ और यह से भाग नहीं तो मार ही डालूंगी। यों कहकर मैने एक मूसल उठा लिया और जिस खाट पर उस (हिरवा) की मां सोई हुई थी, उस खाट की ओर देखा । मैने क्या देखा कि यह खाट खाली पड़ी हुई है और उसपर हिरवा की मां हुलसिया नहीं है ! यह देखकर मैं बड़ी चकपकाई की वह मंड कहां मई ? इतने में फिर मैने हिरवा की भोर दीठ फेरी तो । क्या देखा कि वह गया नहीं है, पलिम जहां पड़ा था, वहीं पड़ा। हुआ है ! यह देखफर मैंने उससे बार बार यों कहा कि, ' अब तू पठ और यहां से चला जा,' पर यह जहां का तहां पड़ा ही रहा! तय तो मैने उसके पास जाकर उसके सिर में अपने पैर की दो सीम ठोकर मारी, पर यह अग न मिमका ! यह देखकर मैं बहुत ही हिरान हुई और पीया लेकर उसका मुहं निहारने लगी । अरेरे! मैने क्या देखा कि उसकी भांखों के दोनो ढेके बाहर निकल पड़े हैं, बोभ भी मुहं के बाहर भागई है और बहुतसा फेन और जून उसके मुहं से बहा और धीरे धीरे बह रहा है ! यह देखकर मेरा सा बदन शर्ग उठा और वन मेरे हाथ का दीया हाथ से। गिरकर बुझ गया ! मैं भी फिर खड़ी न रह सकी और चक्कर। खाकर षहीं गिर पड़ी।
- मैं कबतक बेसुध पड़ी रही, यह तो नहीं कह सकती, पर जब
मुझे चेत हुआ तो मैने क्या देखा कि मेरे हाथ-पैर बंधे हुए हैं,मै आपनी चारपाई पर डाल दी गई हूं, हिरषा भी धर्ती में जहां का वहां पड़ा हुआ है और सस कोठरी में चार आदमी आकर खड़े हुए है, जिनमें से एक के दाहिने हाथ में तलवर गौर बाऐ में एक मोडा सा जलता हुआ पलीता है और बाकी के तीनों आदमियों के हाधों में स्वामी सल्वार हैं। यह अजीब तमाशा देख कर मैं सन्नाटे में भागई और बार बार इस कोठरी के चारों मोर मांखें दौड़ांगे गौर भन चारो आदमियों