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पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/४९

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( ४७)
सात खून।


दसवां परिच्छेद।

माया !

भ्रू चातुर्याकुश्चिताक्षा: कटाक्षाः,
स्निग्धा वाचो जिलाश्चैव हासाः।
लीलामन्दं प्रस्थितं च स्थितं च
स्त्रीणामेतद्भूषणं चायुधं च ॥"

(भ्रत हरिः)
 

बस, इतने ही में कालू आ पहुंचा और मेरी खाट के पास बैठ, हंसकर यों कहने लगा,--"क्यों प्यारी दुलारी ! मैने कैसे अच्छे ढङ्ग अपने साथियों को यहांसे हटाया !"

मैं बोली,--"किन्तु इस झूठ का नतीजा क्या होगा ?"

वह कहने लगा,--" यह बात पीछे सोची जायगी। इस बखत तो उन सभी को यहांसे टाल दिया न ! जी यह पास मुझे न सूझती, तो वे तोनों भला, यहांसे कभी टलनेवाले थे! अच्छा, अब तुम्हें जो कुछ कहना-सुमना हो, उसे झटपट कह डालो;क्योंकि . रात होती चली जा रही है।"

यह सुनकर मैने उसकी ओर हंसकर देखा और स्त्रियों के स्वाभाविक अस्त्र-शस्त्रों का कुछ थोड़ा सा प्रयोग करके उससे यों कहा,-"कालू, यद्यपि तुम पर अभी तक मैने यह बात प्रगट नहीं को थी, क्योंकि मेरे माता पिता जीते थे, पर यह तुम सब जानो कि मैं भी जी ही जी में तुम्हें चाहने लगी थी।

यों कहकर मैंने फिर जरा ला मुस्कुरा दिया, जिससे वह मुंआ बिलकुल घायल होगया और मेरी और बड़ी बेचैनी के साथ देखकर यो कहने लगा,-"ऐं, यह क्या तुम सच कह रही हो ? "

मैने खांस कर कहा,-"हां, बिल्कुल हो सच !!!"

वह कहने लगी,-"तब तो यह बड़ी ही खुशी की बात हुई !

मैं बोली,-"लेकिन मेरे लिये तो यह बड़ी दुखदाई बात हुई !"

( ७ )टुंडा