ग्यारहवां परिच्छेद।
दुःख पर दुःख।
"एकस्य दुःखस्य न यावदन्तं
गच्छाम्यहं बार मित्रार्णवस्य ।
ताचद् द्वितीयं समुपस्थितं मे,
छिद्रेग्नथ्र बहुलोभवन्ति ॥"
फिर वहां से भागने की मैने ठहराई । सो, बरगट एक मोटी धोती और एक रूईदार सलूका पहिर कर मैंने एक ऊनी सफेद चादर ओढ़ ली और मन ही मन भगवान और भगवती को प्रणाम करके उस कोठरी से मैं याहर निकली।
उस समय भागने की धुन में मैं ऐसी लौलीन होरही थी कि मुझे इस बात का मुनलफ खयाल नहीं था कि, 'इसी घर में हिरवा मरा पड़ा है !' अस्तु, फिर मैं जल्दी जल्दी पैर बढ़ाती हुई सदर दरवाजे की ओर जाने लगी थी कि इतने ही में कालू पड़े जोर से चीख मार उठा और मुझे ऐसा जान पड़ा कि मानो " धम्म” से कोई चीज रसोईघर में गिरी हो!
ऐसी आहट पाकर मैं तेजी के साथ सदर दरवाजे की ओर भागी थी कि बड़े जोर से कराह कर कालू ने मुझे पुकारा,-"ओ दुलारी, तेरे तीनों चाहनेवालों को मारकर मैं भी नब्यू की सल्वार से अधमुभां होकर गिर गया हूँ ! आह, तू जल्द आ और मुझे थोड़ा सा पानी दे। हाय, पानी! अब दम निकला! दुलारी! पानी!!!"
कालू की ऐसी विचित्र बात के सुनते ही मेरे पैर रुक गए और बड़े जोर से मेरा हिया कांप उठा ! मैं अपना माथा पकड़ कर जहां खड़ी थी, वहीं बैठ गई और कालू मुझे बार बार पुकारने और "पानी-पानी" चिल्लाने लगा। आखिर, मैं किसी किसी तरह अपना