समर्थन के लिये कोई भी ओर आगे नहीं बढ़ा था। येही सब रंग ढंग देखकर अदालत के कहने पर भी फिर मैंने किसी वकील या बैरिष्टर को अपनी ओर से नहीं खड़ा किया था। इसमें एक बात और भी थी और वह यह थी कि मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी न थी, फिर वैसी अवस्था में वकील-बारिष्टर क्यों कर किए जाते।
अस्तु इसी तरह की बातें मैं देर तक सोचती रही, इतने में एक कान्स्टेबिल मुझे नित्य की भांति दूध देगया, जिसे पीकर मैंने सन्तोष किया। उसी समय घड़ी ने दोपहर के बारह बजाए।
जिस तरह की कोठरी में मैं बन्द की गई थी, वह इतनी छोटी थी कि उसकी छत खड़े होने से मांथे में लगती थी और उसमें हाथ-पावं फैला कर सोना कठिन था। उसके तीन ओर पल्ली दीवार थी और चौथी ओर लोहे का मजबूत दरवाजा था, जिस में तीन तीन इञ्च की दूरी पर मोटे मोटे लोहे के छड़ लगे हुए थे। मुझे जेलखाने के ढंग का एक मोटा और जनाना कपड़ा दिया गया था, जिसे मैं पहिरे हुई थी।
जेलर साहब एक बङ्गाली थे, उनका बयस पचास के पार था और वे मेरे साथ बड़ी भलमंसी का बरताव करते थे। जेल के और सिपाही भी सहूलियत से ही पेश आते थे।
मुझे कोई कष्ट न था और मैं बड़े धीरज के साथ अपना दिन बिताती थी। मुझे फांसी की टिकटी पर चढ़ने या मरने का तनिक भी डर न था, क्योंकि इस शोचनीय दशा को पहुंचकर मैं अब जीना नहीं चाहती थी; पर जब जेलर साहब की बात पर मेरा ध्यान जाता तो मैं बहुत ही आश्चर्य करने लगती कि अरे, मुझ अभागिन के लिये नारायण ने किस दयावान को खड़ा किया है?