करनी चाहिए।' बस, इसी खयाल में रातभर मैं डूबी रही और इस पान का मुझे जरा भी ध्यान न रहा कि रख आगे क्या होगा!
मैं सारी रात अपने ध्यान में डूबी रही, क्योंकि फिर किसी चौकीदार ने मुझे नहीं रोका । सो, सारी रात मैं मूढ़े पर बैठी हुई जागती थी, या सोती थी, इस बात की तो मुझे अब तनिक भी सुध नहीं है; पर हां, इतना अवश्य स्मरण है कि जब सुबह की सफेदी आसमान पर फैल रही थी, तभ उस जंगले के पास आकर दियानत हुलेन ने मुझे कई आवाजें दी थीं; और जब मैं उप पुकारने से मूड़े पर से उठ खड़ी हुई थी, तब उन्होंने यह कहा था कि,-"वाह री औरत! इस हाड़लोड़ जाड़े में भी तू बिना कुछ थोड़े-पहिरे खिड़की के पास बैठी हुई है और ऐसी सनसनाती हुई हवा के झोंके का कुछ भी खयाल नहीं करती!"
सचमुच, उस रात को मेरी अजीब हालत रही; अर्थात् मुझे कैदवाली कोठरी से निकालने के समय हींगन ने जो कुछ मुझसे कहा था, उससे मेरा सारा शरीर मारे क्रोध के लहक उठा था और शान लोप हो गया था ! सो, जब दियानतहुसेग ने मुझे चैतन्य करके सग्दी और हवा की बात कही, तब मैं अपने आप में आई और मैने क्या देखा कि मेरा योढ़ना धरती में गिर गया है, सारा शरीर बरफ़ की तरह ठंढा होगया है और माथा खूब जल रहा और चक्कर खा रहा है ! इसके बाद मुझे यह खयाल हुमा फि, 'उस कोठरी में रात को कैसा भयङ्कर काण्ड होगया है ! ' इस खयाल के होते ही मैं कांप उठी।
अस्तु, फिर भी मैं उसी खिड़की के आगे मूढ़े पर बैठा रही
और तरह तरह के सोच विचारों में डुबती-उत्तराती रही । हां,
अपने ओढ़ने को मैंने उस समय जरूर ओढ़ लिया था। यह हालत
कर तक रही, यह तो मुझे अब याद नहीं है, पर जब रामदयाल
ने जंगले के पास आकर मुझे कई आषाजे दी,तब मैं फिर चैतन्य हुई।