सोलहवां परिच्छेद ।
बन्दिनी!
"प्रतिकूलतामुपगते हि विधी
विफलत्वमेति बहु साधनता।
अवलम्बनाय दिनभत्त'भू-
त्र शपतिष्यतः करसहसमधि॥"
मुझे चैतन्य जानकर रामदयाल ने कहा,--"ओ कैदी औरत! अब उठ और कोठरी का दरवाजा खोल । देख तो सही, कि कितना दिन चढ़ आया है ! कानपुर से कोतवाल साहय और पुलिस के बड़े साहच भी मा गए हैं और तुझे बुला रहे हैं।"
यह सुनकर मैने बाहर की ओर देखा तो क्या देखा कि दिन डेढ़ पहर के अंदाज चढ़ आया है, मेरा कोठरी के सामने एक मूढ़े पर एक अंगरेज बैठे हैं और कई लाल पगडीयाले उनके अगल बगल और पीछे खड़े हैं ! यह देखकर मैंने रामदयाल से कहा कि,--"साहब को भेजो।"
मैने देखा कि मेरी बात सुनकर रामदयाल चौकीदार ने उन साहब यहादुर के सामने जाकर कुछ कहा, जिसे सुनकर वे मूढ़े पर से उठकर मेरी खिड़की के पास आए और बहुत ही मीठेपन के साथ यों कहने लगे,-"टुमारा नाम क्या है ? "
मैं बोली,--"दुलारी।"
वे बोले,--"अच्छा, डुलाड़ी ! टुम आप डरवाजा खोल डो।"
मैं बोली,--" बहुत अच्छा, मैं अभी दरवाजा खोलती हूं, पर
पहिले आप कृपाकर इस बात का मुझे विश्वास तो दिला दें कि, 'मेरी इज्जत-आबरू पर तो कोई आंच न पहुंचेगी' ?"
वे बोले,--" नेई, कवी गई ! टुमारा इज्जत कोई नई बिगाड़ने