पृष्ठ:गबन.pdf/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

21

जब रमा कोठे से धम-धम नीचे उतर रहा था, उस वक्त जालपा को इसकी जरा भी शंका न हुई कि वह घर से भागा जा रहा है। पत्र तो उसने पढ़ ही लिया था। जी ऐसा अँझला रहा था कि चलकर रमा को खूब खरी-खरी सुनाऊँ। मुझसे यह छल-कपट! पर एक ही क्षण में उसके भाव बदल गए। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ है, सरकारी रुपए खर्च कर डाले हों। यही बात है, रतन के रुपए सर्राफ को दिए होंगे। उस दिन रतन को देने के लिए शायद वे सरकारी रुपए उठा लाए थे। यह सोचकर उसे फिर क्रोध आया, यह मुझसे इतना परदा क्यों करते हैं? क्यों मुझसे बढ़-बढ़कर बातें करते थे? क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि संसार में अमीर-गरीब दोनों ही होते हैं? क्या सभी स्त्रियाँ गहनों से लदी रहती हैं? गहने न पहनना क्या कोई पाप है? जब और जरूरी कामों से रुपए बचते हैं तो गहने भी बन जाते हैं। पेट और तन काटकर, चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते! क्या उन्होंने मुझे ऐसी गईगुजरी समझ लिया! उसने सोचा, रमा अपने कमरे में होगा, चलकर पूछु, कौन से गहने चाहते हैं।

परिस्थिति की भयंकरता का अनुमान करके क्रोध की जगह उसके मन में भय का संचार हुआ। वह बड़ी तेजी से नीचे उतरी, उसे विश्वास था, वह नीचे बैठे हुए इंतजार कर रहे होंगे।

कमरे में आई तो उनका पता न था। साइकिल १, तुरंत दरवाजे से झाँका। सड़क पर भी नहीं। कहाँ चले गए? लड़के दोनों पढ़ने स्कूल गए थे, किसको भेजे कि जाकर उन्हें बुला लाए। उसके हृदय में एक अज्ञात संशय अंकुरित हुआ। फौरन ऊपर गई, गले का हार और हाथ का कंगन उतारकर रूमाल में बाँधा, फिर नीचे उतरी, सड़क पर आकर एक ताँगा लिया और कोचवान से बोली-चुंगी कचहरी चलो। वह पछता रही थी कि मैं इतनी देर बैठी क्यों रही। क्यों न गहने उतारकर तुरंत दे दिए। रास्ते में वह दोनों तरफ बड़े ध्यान से देखती जाती थी। क्या इतनी जल्द इतनी दूर निकल आए? शायद देर हो जाने के कारण वह भी आज ताँगे पर ही गए हैं, नहीं तो अब तक जरूर मिल गए होते। ताँगेवाले से बोली-क्यों जी, अभी तुमने किसी बाबूजी को ताँगे पर जाते देखा? ताँगेवाले ने कहा-हाँ माईजी, एक बाबू अभी इधर ही से गए हैं। जालपा को कुछ ढाढ़स हुआ, रमा के पहुँचते-पहुँचते वह भी पहुँच जाएगी। कोचवान से बार-बार घोड़ा तेज करने को कहती। जब वह दफ्तर पहुँची, तो ग्यारह बज गए थे। कचहरी में सैकड़ों आदमी इधर-उधर दौड़ रहे थे। किससे पूछे? न जाने वह कहाँ बैठते हैं? सहसा एक चपरासी दिखलाई दिया। जालपा ने उसे बुलाकर कहा-सुनो जी, जरा बाबू रमानाथ को तो बुला लाओ। चपरासी बोला-उन्हीं को बुलाने तो जा रहा हूँ। बड़े बाबू ने भेजा है। आप क्या उनके घर ही से आई हैं? जालपा हाँ, मैं तो घर ही से आ रही हूँ। अभी दस मिनट हुए वह घर से चले हैं।

चपरासी–यहाँ तो नहीं आए।

जालपा बड़े असमंजस में पड़ी। वह यहाँ भी नहीं आए, रास्ते में भी नहीं मिले, तो फिर गए कहाँ? उसका दिल बाँसों उछलने लगा। आँखें भर-भर आने लगीं। वहाँ बड़े बाबू के सिवा वह और किसी को न जानती थी। उनसे बोलने का अवसर कभी न पड़ा था, पर इस समय उसका संकोच गायब हो गया। भय के सामने मन के और सभी