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'नहीं, डर नहीं रहा हूँ, मगर क्या फायदा?'

'मैं अकेले जाकर क्या करूँगा? मुझे क्या मालूम, तुम्हें कौन कपड़ा पसंद है? चलकर अपनी पसंद से ले लो। वहीं दरजी को दे देंगे।'

'तुम जैसा कपड़ा चाहे, ले लेना। मुझे सब पसंद है।'

'तुम्हें डर किस बात का है? पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी। कोई तुम्हारी तरफ ताकेगा भी नहीं।'

'मैं डर नहीं रहा हूँ दादा, जाने की इच्छा नहीं है।'

'डर नहीं रहे हो, तो क्या कर रहे हो? कह रहा हूँ कि कोई तुम्हें कुछ न कहेगा, इसका मेरा जिम्मा, मुदा तुम्हारी जान निकली जाती है!'

देवीदीन ने बहुत समझाया, आश्वासन दिया, पर रमा जाने पर राजी न हुआ। वह डरने से कितना ही इनकार करे, पर उसकी हिम्मत घर से बाहर निकलने की न पड़ती थी। वह सोचता था, अगर किसी सिपाही ने पकड़ लिया, तो देवीदीन क्या कर लेगा? माना सिपाही से इसका परिचय भी हो तो यह आवश्यक नहीं कि वह सरकारी मामले में मैत्री का निर्वाह करे। यह मिन्नत-खुशामद करके रह जाएगा, जाएगी मेरे सिर। कहीं पकड़ा जाऊँ, तो प्रयाग के बदले जेल जाना पड़े। आखिर देवीदीन लाचार होकर अकेला ही गया।

देवीदीन घंटे भर में लौटा, तो देखा, रमा छत पर टहल रहा है। बोला-कुछ खबर है, कै बज गए? बारह का अमल है। आज रोटी न बनाओगे क्या? घर जाने की खुशी में खाना-पीना छोड़ दोगे?

रमा ने झेंपकर कहा—बना लूँगा दादा, जल्दी क्या है? यह देखो, नमूने लाया हूँ, इनमें जौन-सा पसंद करो, ले लूँ।

यह कहकर देवीदीन ने ऊनी और रेशमी कपड़ों के सैकड़ों नमूने निकालकर रख दिए। पाँच-छह रुपए गज से कम का कोई कपड़ा न था। रमा ने नमूनों को उलट-पलटकर देखा और बोला—इतने महँगे कपड़े क्यों लाए, दादा? और सस्ते न थे?

'सस्ते थे, मुदा विलायती थे।'

'तुम विलायती कपड़े नहीं पहनते?'

'इधर बीस साल से तो नहीं लिए, उधर की बात नहीं कहता। कुछ बेसी दाम लग जाता है, पर रुपया तो देस ही में रह जाता है।'

रमा ने लजाते हुए कहा-तुम नियम के बड़े पक्के हो दादा!

देवीदीन की मुद्रा सहसा तेजवान हो गई। उसकी बुझी हुई आँखें चमक उठीं। देह की नसें तन गईं। अकड़कर बोला, जिस देस में रहते हैं, जिसका अन्न-जल खाते हैं, उसके लिए इतना भी न करें तो जीने को धिक्कार है। दो जवान बेटे इसी सुदेसी की भेंट कर चुका हूँ, भैया! ऐसे-ऐसे पड़े थे कि तुमसे क्या कहें। दोनों बिदेसी कपड़ों की दुकान पर तैनात थे। क्या मजाल थी कोई ग्राहक दुकान पर आ जाए। हाथ जोड़कर, घिघियाकर, धमकाकर,