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'मैं घर पहुँचकर तुम्हारे रुपए दिला दूंगा।'

'और मैं तुम्हारी गुरु-दक्षिणा भी वहीं दे दूंगा।'

गुरु-दक्षिणा भी मुझी को देनी पड़ेगी। मैंने तुम्हें चार हरफ अंग्रेजी पढ़ा दिए, तुम्हारा इससे कोई उपकार न होगा। तुमने मुझे पाठ पढ़ाए हैं, उन्हें मैं उम्र-भर नहीं भूल सकता। मुँह पर बड़ाई करना खुशामद है, लेकिन दादा, मातापिता के बाद जितना प्रेम मुझे तुमसे है, उतना और किसी से नहीं। तुमने ऐसे गाढ़े समय मेरी बाँह पकड़ी, जब मैं बीच धार में बहा जा रहा था। ईश्वर ही जाने, अब तक मेरी क्या गति हुई होती, किस घाट लगा होता!

देवीदीन ने चुहल से कहा-और जो कहीं तुम्हारे दादा ने मुझे घर में न घुसने दिया तो?

रमा ने हँसकर कहा-दादा तुम्हें अपना बड़ा भाई समझेंगे, तुम्हारी इतनी खातिर करेंगे कि तुम ऊब जाओगे। जालपा तुम्हारे चरण धो-धो पिएगी, तुम्हारी इतनी सेवा करेगी कि जवान हो जाओगे।

देवीदीन ने हँसकर कहा-तब तो बुढिया डाह के मारे जल मरेगी। मानेगी नहीं, नहीं तो मेरा जी चाहता है कि हम दोनों यहाँ से अपना डेरा-डंडा लेकर चलते और वहीं अपनी सिरकी तानते। तुम लोगों के साथ जिंदगी के बाकी दिन आराम से कट जाते, मगर इस चुडैल से कलकत्ता न छोड़ा जाएगा। तो बात पक्की हो गई न?

'हाँ, पक्की ही है।'

'दुकान खुले तो चलें, कपड़े लावें, आज ही सिलने को दे दें।'

देवीदीन के चले जाने के बाद रमा बड़ी देर तक आनंद-कल्पनाओं में मगन बैठा रहा। जिन भावनाओं को उसने कभी मन में आश्रय न दिया था, जिनकी गहराई और विस्तार और उद्वेग से वह इतना भयभीत था कि उनमें फिसलकर डूब जाने के भय से चंचल मन को उधर भटकने भी न देता था, उसी अथाह और अछोर कल्पना-सागर में वह आज स्वच्छंद रूप से क्रीड़ा करने लगा। उसे अब एक नौका मिल गई थी। वह त्रिवेणी की सैर, वह अल्फ्रेड पार्क की बहार, वह खुसरो बाग का आनंद, वह मित्रों के जलसे, सब याद आ-आकर हृदय को गुदगुदाने लगे। रमेश उसे देखते ही गले लिपट जाएँगे। मित्रगण पूछेगे, कहाँ गए थे, यार खूब सैर की? रतन उसकी खबर पाते ही दौड़ी आएगी और पूछेगी, तुम कहाँ ठहरे थे, बाबूजी? मैंने सारा कलकत्ता छान मारा। फिर जालपा की मान-प्रतिमा सामने आ खड़ी हुई।

सहसा देवीदीन ने आकर कहा–भैया, दस बज गए, चलो बाजार होते आवें।

रमा ने चौंककर पूछा-क्या दस बज गए?

देवीदीन-दस नहीं, ग्यारह का अमल होगा।

रमा चलने को तैयार हुआ, लेकिन द्वार तक आकर रुक गया।

देवीदीन ने पूछा-क्यों खड़े कैसे हो गए?

'तुम्हीं चले जाओ, मैं जाकर क्या करूँगा?'

'क्या डर रहे हो?'