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रमा भद्र समाज पर यह आक्षेप न सुन सका। आखिर वह भी तो भद्र समाज का ही एक अंग था। बोला—यह बात तो नहीं है दादा कि पढ़े-लिखे लोग किसानों का ध्यान नहीं करते। उनमें से कितने ही खुद किसान थे, या हैं। उन्हें अगर विश्वास हो जाए कि हमारे कष्ट उठाने से किसानों का कोई उपकार होगा और जो बचत होगी, वह किसानों के लिए खर्च की जाएगी तो वह खुशी से कम वेतन पर काम करेंगे, लेकिन जब वह देखते हैं कि बचत दूसरे हड़प जाते हैं, तो वह सोचते हैं, अगर दूसरों को ही खाना है, तो हम क्यों न खाएँ।

देवीदीन–तो सुराज मिलने पर दस-दस, पाँच-पाँच हजार के अफसर नहीं रहेंगे? वकीलों की लूट नहीं रहेगी? पुलिस की लूट बंद हो जाएगी?

एक क्षण के लिए रमा सिटपिटा गया। इस विषय में उसने खुद कभी विचार न किया था, मगर तुरंत ही उसे जवाब सूझ गया। बोला-दादा, तब तो सभी काम बहुमत से होगा। अगर बहुमत कहेगा कि कर्मचारियों के वेतन घटा दिए जाएँ, तो घट जाएँगे। देहातों के संगठनों के लिए भी बहुमत जितने रुपए माँगेगा, मिल जाएँगे। कुंजी बहुमत के हाथ में रहेगी और अभी दस-पाँच बरस चाहे न हो, लेकिन आगे चलकर बहुमत किसानों और मजूरों ही का हो जाएगा।

देवीदीन ने मुसकराकर कहा—भैया, तुम भी इन बातों को समझते हो, यही मैंने भी सोचा था। भगवान् करे, कुछ दिन और जिऊँ। मेरा पहला सवाल यह होगा कि बिलायती चीजों पर दुगुना महसूल लगाया जाए और मोटरों पर चौगुना। अच्छा अब भोजन बनाओ। साँझ को चलकर कपड़े दरजी को दे देंगे। मैं भी जब तक खा लूँ।

शाम को देवीदीन ने आकर कहा-चलो भैया, अब तो अँधेरा हो गया।

रमा सिर पर हाथ धरे बैठा हुआ था। मुख पर उदासी छाई हुई थी। बोला-दादा, मैं घर न जाऊँगा।

देवीदीन ने चकित होकर पूछा-क्यों क्या बात हुई?

रमा की आँखें सजल हो गईं। बोला—कौन सा मुँह लेकर जाऊँ दादा! मुझे तो डूब मरना चाहिए था।

यह कहते-कहते वह खुलकर रो पड़ा। वह वेदना; जो अब तक मूर्च्छित पड़ी थी शीतल जल के यह छींटे पाकर सचेत हो गई और उसके क्रंदन ने रमा के सारे अस्तित्व को जैसे छेद डाला। इसी क्रंदन के भय से वह उसे छेड़ता न था, उसे सचेत करने की चेष्टा न करता था। संयत विस्मृति से उसे अचेत ही रखना चाहता था, मानो कोई दुखिनी माता अपने बालक को इसलिए जगाते डरती हो कि वह तुरंत खाने को माँगने लगेगा।