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कलकत्ता में वकील साहब ने ठहरने का पहले ही इंतजाम कर लिया था। कोई कष्टन हुआ। रतन ने महराज और टीमल कहार को साथ ले लिया था। दोनों वकील साहब के पुराने नौकर थे और घर के से आदमी हो गए थे। शहर के बाहर एक बँगला था। उसके तीन कमरे मिल गए। इससे ज्यादा जगह की वहाँ जरूरत भी न थी। हाते में तरहतरह के फल-पौधे लगे हुए थे। स्थान बहुत सुंदर मालूम होता था। पास-पड़ोस में और कितने ही बँगले थे। शहर के लोग उधर हवाखोरी के लिए जाया करते थे और हरे होकर लौटते थे, पर रतन को वह जगह फाड़े खाती थी। बीमार के साथ वाले भी बीमार होते हैं। उदासों के लिए स्वर्ग भी उदास है। सफर ने वकील साहब को और भी शिथिल कर दिया था। दो-तीन दिन तो उनकी दशा उससे भी खराब रही, जैसी प्रयाग में थी, लेकिन दवा शुरू होने के दो-तीन दिन बाद वह कुछ सँभलने लगे। रतन सुबह से आधी रात तक उनके पास ही कुरसी डाले बैठी रहती। स्नान-भोजन की भी सुधि न रहती। वकील साहब चाहते थे कि यह यहाँ से हट जाए तो दिल खोलकर कराहें। उसे तस्कीन देने के लिए वह अपनी दशा को छिपाने की चेष्टा करते रहते थे। वह पूछती, आज कैसी तबीयत है? तो वह फीकी मुसकराहट के साथ कहते-आज तो जी बहुत हलका मालूम होता है। बेचारे सारी रात करवटें बदलकर काटते थे, पर रतन पूछती रात नींद आई थी? तो कहते हाँ, खूब सोया। रतन पथ्य सामने ले जाती, तो अरुचि होने पर भी खा लेते। रतन समझती, अब यह अच्छे हो रहे हैं। कविराजजी से भी वह यही समाचार कहती। वह भी अपने उपचार की सफलता पर प्रसन्न थे। एक दिन वकील साहब ने रतन से कहा-मुझे डर है कि मुझे अच्छा होकर तुम्हारी दवा न करनी पड़े।

रतन ने प्रसन्न होकर कहा-इससे बढ़कर क्या बात होगी। मैं तो ईश्वर से मनाती हूँ कि तुम्हारी बीमारी मुझे दे दें। शाम को घूम आया करो। अगर बीमार पड़ने की इच्छा हो, तो मेरे अच्छे हो जाने पर पड़ना।

'कहाँ जाऊँ, मेरा तो कहीं जाने को जी ही नहीं चाहता। मुझे यहीं सबसे अच्छा लगता है।'

वकील साहब को एकाएक रमानाथ का खयाल आ गया। बोले जरा शहर के पार्कों में घूम-घाम कर देखो, शायद रमानाथ का पता चल जाए। रतन को अपना वादा याद आ गया। रमा को पा जाने की आनंदमय आशा ने एक क्षण के लिए उसे चंचल कर दिया। कहीं वह पार्क में बैठे मिल जाएँ तो पूछु, कहिए बाबूजी, अब कहाँ भागकर जाइएगा? इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल उठी। बोली, जालपा से मैंने वादा तो किया था कि पता लगाऊँगी, पर यहाँ आकर भूल गई।

वकील साहब ने साग्रह कहा—आज चली जाओ। आज क्या शाम को रोज घंटे भर के लिए निकल जाया करो।

रतन ने चिंतित होकर कहा—लेकिन चिंता तो लगी रहेगी।

वकील साहब ने मुसकराकर कहा—मेरी? मैं तो अच्छा हो रहा हूँ।

रतन ने संदिग्ध भाव से कहा-अच्छा, चली जाऊँगी।

रतन को कल से वकील साहब के आश्वासन पर कुछ संदेह होने लगा था। उनकी चेष्टा से अच्छे होने का कोई लक्षण उसे न दिखाई देता था। इनका चेहरा क्यों दिन-दिन पीला पड़ता जाता है! इनकी आँखें क्यों हरदम बंद रहती