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पृष्ठ:गबन.pdf/१४१

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जालपा विचारों में डूबी हुई जमीन की तरफ ताकती रही। कुछ जवाब न दिया। रतन ने शिकवे के अंदाज से कहातुमने कुछ जवाब नहीं दिया बहन, मेरी समझ में नहीं आता, तुम मुझसे खिंची क्यों रहती हो? मैं चाहती हूँ, हममें और तुममें जरा भी अंतर न रहे, लेकिन तुम मुझसे दूर भागती हो। अगर मान लो, मेरे सौ-पचास रुपए तुम्हीं से खर्च हो गए, तो क्या हुआ? बहनों में तो ऐसा कौड़ी-कौड़ी का हिसाब नहीं होता।

जालपा ने गंभीर होकर कहा कुछ कहूँ, बुरा तो न मानोगी?

'बुरा मानने की बात होगी तो जरूर बुरा मानूंगी।'

'मैं तुम्हारा दिल दुःखाने के लिए नहीं कहती। संभव है, तुम्हें बुरी लगे। तुम अपने मन में सोचो, तुम्हारे इस बहनापे में दया का भाव मिला हुआ है या नहीं? तुम मेरी गरीबी पर तरस खाकर...'

रतन ने लपककर दोनों हाथों से उसका मुँह बंद कर दिया और बोली–बस अब रहने दो। तुम चाहे जो खयाल करो, मगर यह भाव कभी मेरे मन में न था और न हो सकता है। मैं तो जानती हूँ, अगर मुझे भूख लगी हो, तो मैं निस्संकोच होकर तुमसे कह दूँगी, बहन, मुझे कुछ खाने को दो, भूखी हूँ। जालपा ने उसी निर्ममता से कहा-इस समय तुम ऐसा कह सकती हो। तुम जानती हो कि किसी दूसरे समय तुम पूरियों या रोटियों के बदले मेवे खिला सकती हो, लेकिन ईश्वर न करे कोई ऐसा समय आए जब तुम्हारे घर में रोटी का टुकड़ा न हो तो शायद तुम इतनी निस्संकोच न हो सको।

रतन ने दृढ़ता से कहा-मुझे उस दशा में भी तुमसे माँगने में संकोच न होगा। मैत्री परिस्थितियों का विचार नहीं करती। अगर यह विचार बना रहे तो समझ लो मैत्री नहीं है। ऐसी बातें करके तुम मेरा द्वार बंद कर रही हो। मैंने मन में समझा था, तुम्हारे साथ जीवन के दिन काट दूंगी, लेकिन तुम अभी से चेतावनी दिए देती हो कि अभागों को प्रेम की भिक्षा भी नहीं मिलती। यह कहते-कहते रतन की आँखें सजल हो गई। जालपा अपने को दुखिनी समझ रही थी और दुःखी जनों को निर्मम सत्य कहने की स्वाधीनता होती है, लेकिन रतन की मनोव्यथा उसकी व्यथा से कहीं विदारक थी। जालपा को पति के लौट आने की अब भी आशा थी। वह जवान है, उसके आते ही जालपा को ये बुरे दिन भूल जाएँगे। उसकी आशाओं का सूर्य फिर उदय होगा। उसकी इच्छाएँ फिर फले-फूलेगी। भविष्य अपनी सारी आशाओं और आकांक्षाओं के साथ उसके सामने था। विशाल, उज्ज्वल, रमणीक, रतन का भविष्य क्या था? कुछ नहीं-शून्य, अंधकार!

जालपा आँखें पोंछकर उठ खड़ी हुई। बोली-पत्रों के जवाब देती रहना। रुपए देती जाओ।

रतन ने पर्स से नोटों का एक बंडल निकालकर उसके सामने रख दिया, पर उसके चेहरे पर प्रसन्नता न थी। जालपा ने सरल भाव से कहा-क्या बुरा मान गई?

रतन ने रूठे हुए शब्दों में कहा-बुरा मानकर तुम्हारा क्या कर लूँगी।

जालपा ने उसके गले में बाँहें डाल दीं। अनुराग से उसका हृदय गद्गद हो गया। रतन से उसे इतना प्रेम कभी न हुआ था। वह उससे अब तक खिंचती थी, ईर्ष्या करती थी। आज उसे रतन का असली रूप दिखाई दिया। यह सचमुच अभागिनी है और मुझसे बढ़कर। एक क्षण बाद, रतन आँखों में आँसू और हँसी एक साथ भरे विदा हो गई।