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महरी से कहते, बाबूजी का बड़ा रईसाना मिजाज है। कोई सौदा लाओ, कभी नहीं पूछते, कितने का लाए। बड़ों के घर में बड़े ही होते हैं। बहूजी बाल की खाल निकाला करती थीं, यह बेचारे कुछ नहीं बोलते। महरी का मुँह पहले ही सी दिया गया था। उसके अधेड़ यौवन ने नए मालिक की रसिकता को चंचल कर दिया था। वह एक न एक बहाने से बाहर की बैठक में ही मँडराया करती। रतन को जरा भी खबर न थी, किस तरह उसके लिए व्यूह रचा जा रहा है।

एक दिन मणिभूषण ने रतन से कहा-काकीजी, अब तो मुझे यहाँ रहना व्यर्थ मालूम होता है। मैं सोचता हूँ, अब आपको लेकर घर चला जाऊँ। वहाँ आपकी बहू आपकी सेवा करेगी, बाल-बच्चों में आपका जी बहल जाएगा और खर्च भी कम हो जाएगा। आप कहें तो यह बँगला बेच दिया जाए। अच्छे दाम मिल जाएँगे।

रतन इस तरह चौंकी, मानो उसकी मूर्छा भंग हो गई हो, मानो किसी ने उसे अँझोड़कर जगा दिया हो, सकपकाई हुई आँखों से उसकी ओर देखकर बोली—क्या मुझसे कुछ कह रहे हो? मणिभूषण जी हाँ, कह रहा था कि अब हम लोगों का यहाँ रहना व्यर्थ है। आपको लेकर चला जाऊँ, तो कैसा हो? रतन ने उदासीनता से कहा हाँ, अच्छा तो होगा।

मणिभूषण-काकाजी ने कोई वसीयतनामा लिखा हो, तो लाइए देखू, उनकी इच्छाओं के आगे सिर झुकाना हमारा धर्म है।

रतन ने उसी भाँति आकाश पर बैठे हुए, जैसे संसार की बातों से अब उसे कोई सरोकार ही न रहा हो, जवाब दिया-वसीयत तो नहीं लिखी और क्या जरूरत थी?

मणिभूषण ने फिर पूछा–शायद कहीं लिखकर रख गए हों?

रतन–मुझे तो कुछ मालूम नहीं। कभी जिक्र नहीं किया।

मणिभूषण ने मन में प्रसन्न होकर कहा—मेरी इच्छा है कि उनकी कोई यादगार बनवा दी जाए।

रतन ने उत्सुकता से कहा हाँ-हाँ, मैं भी चाहती हूँ।

मणिभूषण—गाँव की आमदनी कोई तीन हजार साल की है, यह आपको मालूम है। इतना ही उनका वार्षिक दान होता था। मैंने उनके हिसाब की किताब देखी है। दो सौ-ढाई सौ से किसी महीने में कम नहीं है। मेरी सलाह है कि वह सब ज्यों-का-त्यों बना रहे।

रतन ने प्रसन्न होकर कहा–हाँ और क्या!

मणिभूषण तो गाँव की आमदनी तो धर्मार्थ पर अर्पण कर दी जाए। मकानों का किराया कोई दो सौ रुपए महीना है। इससे उनके नाम पर एक छोटी सी संस्कृत पाठशाला खोल दी जाए।

रतन-बहुत अच्छा होगा।

मणिभूषण-और यह बँगला बेच दिया जाए। इस रुपए को बैंक में रख दिया जाए।