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चपरासी ने कहा तुम्हारा ही नाम देवीदीन है न? मैं 'प्रजा-मित्र' के दफ्तर से आया हूँ। यह बाबू उन्हीं रमानाथ के भाई हैं, जिन्हें शतरंज का इनाम मिला था। यह उन्हीं की खोज में दफ्तर गए थे। संपादकजी ने तुम्हारे पास भेज दिया। तो मैं जाऊँ न? यह कहता हुआ वह चला गया। देवीदीन ने गोपी को सिर से पाँव तक देखा। आकृति रमा से मिलती थी। बोला-आओ बेटा, बैठो। कब आए घर से?

गोपी ने एक खटीक की दुकान पर बैठना शान के खिलाफ समझा, खड़ा-खड़ा बोला-आज ही तो आया हूँ। भाभी भी साथ हैं। धर्मशाले में ठहरा हुआ हूँ।

देवीदीन ने खड़े होकर कहा तो जाकर बहू को यहाँ लाओ न, ऊपर तो रमा बाबू का कमरा है ही, आराम से रहो धर्मसाले में क्यों पड़े रहोगे? नहीं चलो, मैं भी चलता हूँ। यहाँ सब तरह का आराम है।

उसने जग्गो को यह खबर सुनाई और ऊपर झाड़ लगाने को कहकर गोपी के साथ धर्मशाले चल दिया। बुढिया ने तुरंत ऊपर जाकर झाड़ लगाया, लपककर हलवाई की दुकान से मिठाई और दही लाई, सुराही में पानी भरकर रख दिया। फिर अपना हाथ-मुँह धोया, एक रंगीन साड़ी निकाली, गहने पहने और बन-ठनकर बहू की राह देखने लगी।

इतने में फिटन भी आ पहुँची। बुढिया ने जाकर जालपा को उतारा। जालपा पहले तो साग-भाजी की दुकान देखकर कुछ झिझकी, पर बुढिया का स्नेह-स्वागत देखकर उसकी झिझक दूर हो गई। उसके साथ ऊपर गई, तो हर एक चीज इसी तरह अपनी जगह पर पाई, मानो अपना ही घर हो। जग्गो ने लोटे में पानी रखकर कहा-इसी घर में भैया रहते थे, बेटी! आज पंद्रह रोज से घर सूना पड़ा हुआ है। हाथ-मुँह धोकर दही-चीनी खा लो न, बेटी! भैया का हाल तो अभी तुम्हें न मालूम हुआ होगा।

जालपा ने सिर हिलाकर कहा-कुछ ठीक-ठीक नहीं मालूम हुआ। वह जो पत्र छपता है, वहाँ मालूम हुआ था कि पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।

देवीदीन भी ऊपर आ गया था। बोला—गिरफ्तार तो किया था, पर अब तो वह एक मुकदमे में सरकारी गवाह हो गए हैं। परागराज में अब उन पर कोई मुकदमा न चलेगा और साइत नौकरी-चाकरी भी मिल जाए। जालपा ने गर्व से कहा—क्या इसी डर से वह सरकारी गवाह हो गए हैं?

'वहाँ तो उन पर कोई मामला ही नहीं है। मकदमा क्यों चलेगा?'

देवीदीन ने डरते-डरते कहा—कुछ रुपए-पैसे का मुआमला था न?

जालपा ने मानो आहत होकर कहा-वह कोई बात न थी। ज्योंही हम लोगों को मालूम हुआ कि कुछ सरकारी रकम इनसे खर्च हो गई है, उसी वक्त पहुँचा दी। यह व्यर्थ घबड़ाकर चले आए और फिर ऐसी चुप्पी साधी कि अपनी खबर तक न दी। देवीदीन का चेहरा जगमगा उठा, मानो किसी व्यथा से आराम मिल गया हो। बोला—तो यह हम लोगों को क्या मालूम! बार-बार समझाया कि घर पर खत-पत्तर भेज दो, लोग घबड़ाते होंगे, पर मारे शर्म के लिखते ही न थे। इसी धोखे में पड़े रहे कि परागराज में मुकदमा चल गया होगा। जानते तो सरकारी गवाह क्यों बनते?

'सरकारी गवाह' का आशय जालपा से छिपा न था। समाज में उनकी जो निंदा और अपकीर्ति होती है, यह भी उससे छिपी न थी। सरकारी गवाह क्यों बनाए जाते हैं, किस तरह प्रलोभन दिया जाता है, किस भाँति वह पुलिस के