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वियोगियों के मिलन की रात बटोहियों के पड़ाव की रात है, जो बातों में कट जाती है। रमा और जालपा, दोनों ही को अपनी छह महीने की कथा कहनी थी। रमा ने अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपने कष्टों को खूब बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया। जालपा ने अपनी कथा में कष्टों की चर्चा तक न आने दी। वह डरती थी—इन्हें दुःख होगा, लेकिन रमा को उसे रुलाने में विशेष आनंद आ रहा था। वह क्यों भागा, किसलिए भागा, कैसे भागा, यह सारी गाथा उसने करुण शब्दों में कही और जालपा ने सिसक-सिसककर सुनी। वह अपनी बातों से उसे प्रभावित करना चाहता था। अब तक सभी बातों में उसे परास्त होना पड़ा था। जो बात उसे असूझ मालूम हुई, उसे जालपा ने चुटकियों में पूरा कर दिखाया। शतरंज वाली बात को वह खूब नमक-मिर्च लगाकर बयान कर सकता था, लेकिन वहाँ भी जालपा ही ने नीचा दिखाया। फिर उसकी कीर्ति-लालसा को इसके सिवा और क्या उपाय था कि अपने कष्टों की राई को पर्वत बनाकर दिखाए।

जालपा ने सिसककर कहा-तुमने यह सारी आफतें झेली, पर हमें एक पत्र तक न लिखा। क्यों लिखते, हमसे नाता ही क्या था! मुँह देखे की प्रीति थी! आँख ओट पहाड ओट!

रमा ने हसरत से कहा यह बात नहीं थी जालपा, दिल पर जो कुछ गुजरती थी, दिल ही जानता है, लेकिन लिखने का मुँह भी तो हो। जब मुँह छिपाकर घर से भागा, तो अपनी विपत्ति-कथा क्या लिखने बैठता! मैंने तो सोच लिया था, जब तक खूब रुपए न कमा लूँगा, एक शब्द भी न लिखूंगा।

जालपा ने आँसू भरी आँखों में व्यंग्य भरकर कहा ठीक ही था, रुपए आदमी से ज्यादा प्यारे होते ही हैं! हम तो रुपए के यार हैं, तुम चाहे चोरी करो, डाका मारो, जाली नोट बनाओ, झूठी गवाही दो या भीख माँगो, किसी उपाय से रुपए लाओ। तुमने हमारे स्वभाव को कितना ठीक समझा है, कि वाह! गोसाईंजी भी तो कह गए हैं, स्वारथ लाइ करहिं सब प्रीति।

रमा ने झेंपते हुए कहा-नहीं-नहीं प्रिये, यह बात न थी। मैं यही सोचता था कि इन फटे-हालों जाऊँगा कैसे? सच कहता हूँ, मुझे सबसे ज्यादा डर तुम्हीं से लगता था। सोचता था, तुम मुझे कितना कपटी, झूठा, कायर समझ रही होगी। शायद मेरे मन में यह भाव था कि रुपए की थैली देखकर तुम्हारा हृदय कुछ तो नरम होगा।

जालपा ने व्यथित कंठ से कहा-मैं शायद उस थैली को हाथ से छूती भी नहीं। आज मालूम हो गया, तुम मुझे कितनी नीच, कितनी स्वार्थिनी, कितनी लोभिन समझते हो! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, सरासर मेरा दोष है। अगर मैं भली होती, तो आज यह दिन ही क्यों आता? जो पुरुष तीस-चालीस रुपए का नौकर हो, उसकी स्त्री अगर दोचार रुपए रोज खर्च करे, हजार-दो हजार के गहने पहनने की नीयत रखे, तो वह अपनी और उसकी तबाही का सामान कर रही है। अगर तुमने मुझे इतना धनलोलुप समझा, तो कोई अन्याय नहीं किया, मगर एक बार जिस आग में जल चुकी, उसमें फिर न कूदूंगी। इन महीनों में मैंने उन पापों का कुछ प्रायश्चित्त किया है और शेष जीवन के अंत समय तक करूँगी। यह मैं नहीं कहती कि भोग-विलास से मेरा जी भर गया या गहने-कपड़े से मैं ऊब गई या सैर-तमाशे से मुझे घृणा हो गई। यह सब अभिलाषाएँ ज्यों की त्यों हैं। अगर तुम अपने पुरुषार्थ से, अपने परिश्रम से, अपने सदुद्योग से उन्हें पूरा कर सको तो क्या कहना, लेकिन नीयत खोटी करके, आत्मा को कलुषित करके