पृष्ठ:गबन.pdf/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

'यह क्या खड़ा है!'

'अच्छा, बुला लो!'

रमा चादर ओढ़े, कुछ झिझकता, कुछ झेंपता, कुछ डरता, जीने पर चढ़ा। जालपा ने उसे देखते ही पहचान लिया। तुरंत दो कदम पीछे हट गईं। देवीदीन वहाँ न होता तो वह दो कदम और आगे बढ़ी होती। उसकी आँखों में नशा न था, अंगों में कभी इतनी चपलता न थी, कपोल कभी इतने न दमके थे, हृदय में कभी इतना मृदु कंपन न हुआ था, आज उसकी तपस्या सफल हुई!