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भी यदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो शायद उसके संकटों का अंत हो जाता। जालपा एक मिनट तक अवश्य सन्नाटे में आ जाती। संभव है, क्रोध और निराशा के आवेश में दो-चार कटु शब्द मुँह से निकालती, लेकिन फिर शांत हो जाती। दोनों मिलकर कोई-न-कोई युक्ति सोच निकालते। जालपा यदि रतन से यह रहस्य कह सुनाती, तो रतन अवश्य मान जाती, पर हाय रे आत्मगौरव। रमा ने यह बात सुनकर ऐसा मुँह बना लिया मानो जालपा ने उस पर कोई निष्ठुर प्रहार किया हो। बोला-रतन के रुपए क्यों देता। आज चाहूँ, तो दो-चार हजार का माल ला सकता हूँ। कारीगरों की आदत देर करने की होती ही है। सुनार की खटाई मशहूर है। बस और कोई बात नहीं। दस दिन में या तो चीज ही लाऊँगा या रुपए वापस कर दूंगा, मगर यह शंका तुम्हें क्यों हुई? पराई रकम भला मैं अपने खर्च में कैसे लाता।

जालपा-कुछ नहीं, मैंने यों ही पूछा था।

जालपा को थोड़ी देर में नींद आ गई, पर रमा फिर उसी उधेड़बुन में पड़ा। कहाँ से रुपए लाए। अगर वह रमेश बाबू से साफ-साफ कह दे तो वह किसी महाजन से रुपए दिला देंगे, लेकिन नहीं, वह उनसे किसी तरह न कह सकेगा। उसमें इतना साहस न था। उसने प्रात:काल नाश्ता करके दफ्तर की राह ली। शायद वहाँ कुछ प्रबंध हो जाए! कौन प्रबंध करेगा, इसका उसे ध्यान न था। जैसे रोगी वैद्य के पास जाकर संतुष्ट हो जाता है पर यह नहीं जानता, मैं अच्छा हूँगा या नहीं। यही दशा इस समय रमा की थी। दफ्तर में चपरासी के सिवा और कोई न था। रमा रजिस्टर खोलकर अंकों की जाँच करने लगा। कई दिनों से मीजान नहीं दिया गया था, पर बड़े बाबू के हस्ताक्षर मौजूद थे। अब मीजान दिया, तो ढाई हजार निकले। एकाएक उसे एक बात सूझी। क्यों न ढाई हजार की जगह मीजान में दो हजार लिख दूँ। रसीद बही की जाँच कौन करता है। अगर चोरी पकड़ी भी गई तो कह दूँगा, मीजान लगाने में गलती हो गई, मगर इस विचार को उसने मन में टिकने न दिया। इस भय से, कहीं चित्त चंचल न हो जाए, उसने पेंसिल के अंकों पर रोशनाई फेर दी और रजिस्टर को दराज में बंद करके इधर-उधर घूमने लगा। इक्की-दुक्की गाडियाँ आने लगीं। गाड़ीवानों ने देखा, बाबू साहब आज यहीं हैं, तो सोचा जल्दी से चुंगी देकर छुट्टी पर जाएँ। रमा ने इस कृपा के लिए दस्तूरी की दूनी रकम वसूल की और गाड़ीवानों ने शौक से दी, क्योंकि यही मंडी का समय था और बारह-एक बजे तक चुंगीघर से फुरसत पाने की दशा में चौबीस घंटे का हर्ज होता था, मंडी दस-ग्यारह बजे के बाद बंद हो जाती थी, दूसरे दिन का इंतजार करना पड़ता था। अगर भाव रुपए में आधा पाव भी फिर गया, तो सैकड़ों के मत्थे गई। दस-पाँच रुपए का बल खा जाने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। रमा को आज यह नई बात मालूम हुई। सोचा, आखिर सुबह को मैं घर ही पर बैठा रहता हूँ। अगर यहाँ आकर बैठ जाऊँ तो रोज दस-पाँच रुपए हाथ आ जाएँ। फिर तो छह महीने में यह सारा झगड़ा साफ हो जाए। मान लो रोज यह चाँदी न होगी, पंद्रह न सही, दस मिलेंगे, पाँच मिलेंगे। अगर सुबह को रोज पाँच रुपए मिल जाएँ और इतने ही दिन भर में और मिल जाएँ, तो पाँच-छह महीने में मैं ऋण से मुक्त हो जाऊँ। उसने दराज खोलकर फिर रजिस्टर निकाला।

यह हिसाब लगा लेने के बाद अब रजिस्टर में हेर-फेर कर देना, उसे इतना भयंकर न जान पड़ा। नया रंगरूट, जो पहले बंदूक की आवाज से चौंक पड़ता है, आगे चलकर गोलियों की वर्षा में भी नहीं घबड़ाता। रमा दफ्तर बंद करके भोजन करने घर जाने ही वाला था कि एक बिसाती का ठेला आ पहुँचा। रमा ने कहा, लौटकर चुंगी लूँगा। बिसाती ने मिन्नत करनी शुरू की। उसे कोई बड़ा जरूरी काम था। आखिर दस रुपए पर मामला ठीक हुआ। रमा ने चुंगी ली, रुपए जेब में रखे और घर चला। पच्चीस रुपए केवल दो-ढाई घंटों में आ गए। अगर एक महीने भी यह औसत रहे तो पल्ला पार है। उसे इतनी खुशी हुई कि वह भोजन करने घर न गया। बाजार से भी कुछ नहीं मँगवाया।