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पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/१४

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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(७)


यों ठग ने अपनाय, अटल-विश्वास बढ़ाया।
मा का मन फुसलाय, अमङ्गल-पाठ पढ़ाया॥
रच दुहिता का व्याह, राँड कर जो न जनोंगी।
तो तुम खोय सुहाग, निखसमी नारि बनोंगी।

(८)


जटिल जाल की चाल, सरल जननी ने जानी।
अचला टेक टिकाय, अशुभ करने की ठानी।
बोली विहित विधान, अर्थ व्यय से न डरूँगी।
पर कन्या बिन ब्याह, कहो किस भाँति करूँगी।

(९)


वह बोला सब काम, सिद्ध पण्डित करलेंगे।
पटली पै अभिषिक, एक गुड़िया धरलेंगे॥
करना उसका दान, पयोधर पीते वर को।
इस विधि से कल्याण, कमाना कुनबे भर को॥

(१०)


सुन मा ने प्रतिवाद, किया बेजोड़ कथन का।
जड़ के साथ विवाह, असम्भव है चेतन का॥
गुड़िया का भरतार, बने वर बिन जाई का।
सिद्ध करो सप्रमाण, मर्म इस चतुराई का॥