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पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/१८

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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(२३)


लो! सहस्त्र कलदार, निकालो झटपट जाऊँ।
देकर शुल्क समस्त, ससकते वर को लाऊँ॥
माता सुन कर हाल, घुसी घर में द्विविधासी।
रख दी रोकड़ काढ़, लपक ले गया बिसासी॥

(२४)


फिर पाखण्ड प्रवीण, महोदर दो ठग आये।
बोले वचन विनीत, बटुकजी के गुण गाये॥
मा की लगन लगाय, मनोहर मण्डष छाया।
पूजे कलश गणेश, ग्रहों का नवक पुजाया॥

(२५)


बटुक वीर ने आय, कुपथ की पद्धति खोली।
पढ़ने लगा कुमन्त्र, बदल कर बोली बोली॥
एक पटा पर खोल, गाँठ से रखदी पुड़िया।
धरली उस के पास, बनी गूदड़ की गुड़िया॥

(२६)


मा ने निरख चरित्र, कहा वर साथ न लाये।
ग्यारह सौ कलदार, कहाँ किस को परखाये॥
बोला बटुक लबार, लिया शिशु देकर खोड़ा।
भाग चला तन त्याम, इसे पकड़ा कब छोड़ा॥