पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/१७

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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(१९)


कह डाली भय-भार, लाद कर धर्मकहानी।
चतुर पिता ने चाल, खर्ब खल की पहँचानी॥
फटकारी डरपोक, समझ भेरी महतारी।
चढ़ बैंठी प्रणरोप, अन्त को नर पर नारी॥

(२०)


दुहिता का कर ब्याह, उदर में राँड करूँगी।
प्रथम आप से नाथ!, नहीं विष खाय मरूँगी॥
जननी की हठ व्याधि, जनक ने बेढब जानी।
हार मान रिस रोक, कहा करना मनमानी॥

(२१)


पौढ़ रहे चुपचाप, उठे देखा दिनकर को।
न्हाकर भोजन पाय, पिता निकला बाहर को॥
आधा दिवस बिताय, बटुक व्याकुल सा आया।
घबराहट का ठाठ, बाँध गठरी भर लाया॥

(२२)


बोला कुटिल कुचाल, ग्रहों की कब टलती है।
उस लड़के की ऊल, ऊल पसली चलती है॥
जोड़ मिल गया ठीक, बड़ा चोखा घर वर है।
करलो अपना काम, आज ही का अवसर है॥