पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/२०

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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(३१)


देख प्रचण्ड प्रमाद, असुर के शिष्य पुकारे।
अनघे! रोष बिसार, दूर करलो भ्रम सारे॥
बटुकनाथ से सिद्ध, आपदुद्धारक कम हैं।
इन के भक्त अनन्य, बड़े बड़भागी हम हैं॥

(३२)


जो अपना तन त्याग, चला था प्रेतनगर को।
पुड़िया में किस भाँति, बाँधलाये उस वर को॥
उपजा है यह प्रश्न, तुम्हारे बोध अधम से।
इस का उत्तर ठीक, सुनो समझो लो! हमसे॥

(३३)


उपदेशक गोकर्णा, धुन्धकारी सुनकर था।
कठिन बाँस की पोल, पतित भ्राता का घर था॥
मुक्त हुआ वह प्रेत, भागवत का फल पाया।
वर भी उस की भाँति, पकड़ पुड़िया में आया॥

(३४)


पाय प्रसिद्ध प्रमाण, शिथिल शङ्का हिय हारी।
बटुक पोच के पाय, पकड़ बोली महतारी॥
पाहि पाहि!! अपराध, क्षमा करिये प्रभु मेरे।
यों कर जोड़ विनीत, वचन बोले बहुतेरे॥