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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(१०६)


यों अपने अनुकूल, पड़ोसिन की मति पाली।
झट मा ने गुरुगाँठ, लगा कर टेक टिकाली॥
दुहिता को रसिकेश, भक्ति-रस-युक्त करूँगी।
यदि न उठी तो आज, हलाहल खाय मरूँगी॥

(१०७)


मरने का प्रण ठान, प्रशस्त प्रयत्न निकाला।
चम्मच से मुख चीर, विष्णुचरणोदक डाला॥
सरस होगया कण्ठ, खुले दृग मैं कुछ बोली।
जननी ने चख चूम, कहा बिटिया उठ सोली॥

(१०८)


कर श्रीगोकुलनाथ, देव की विनय बड़ाई।
फिर स्वाभाविक प्रेम, बढ़ा मिटगई लड़ाई॥
सूखे पट पहनाय, मिली मुझ से महतारी।
खाय पड़ोसिन पान, समोद स्वगेह सिधारी॥

(१०९)


कर न सकी वैधव्य, हटा कर मन के चीते।
अटका पञ्च-प्रपञ्च, न संकट के दिन बीते॥
होकर हाय! हताश, रही पछताती घर मैं।
ठगियों को भर पेट, कोसती थी दिनभर मैं॥